Friday 18 September, 2009

सम्पादकीय

लूट की छूट

आजकल
देश में भ्रष्टाचार पर बहस चल रही है. वह भी सुप्रीम कोर्ट और भारत के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन द्वारा इसकी शुरुआत एक संगोष्ठी में यह कहकर की गई कि भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की संपत्ति जब्त कर ली जानी चाहिए. इसके बाद उनकी इस टिप्पणी का पुछल्ला पकड़कर कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने एक कदम और आगे बढ़ाकर कहा कि संविधान का अनुच्छेद 311 हमेशा भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित करने में सबसे बड़ी बाधा खड़ी कर रहा है. सरकार एवं न्यायपालिका दोनों के शीर्ष स्तरों पर यह तो माना जा रहा है बल्कि मान लिया गया है कि भ्रष्टाचार को रोकने में कानून की कुछ धाराएं आड़े आ रही हैं. परंतु यह लोग तब चुप क्यों थे, जब केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम में संशोधन करके संयुक्त सचिव एवं उससे ऊपर स्तर के सरकारी अधिकारियों पर कोई भी कार्रवाई करने से पहले सरकार की पूर्व अनुमति लिए जाने का संशोधन किया जा रहा था? यह संशोधन करके सरकार ने उच्च स्तर के महाभ्रष्टाचार को पूरी तरह अभय प्रदान कर दिया था. एक वक्त था जब बेईमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी जैसी एकाध होने वाली हरकतें करने वालों को सर्वसामान्य आदमी नफरत की दृष्टि से देखता था और इनके उजागर होने पर गली मुहल्ले में उसे नजरें नीची करके पूरी शर्मिंदगी के साथ दुबक कर गुजरना पड़ता था. पर राजनीतिक आश्रय ने सरकारी महकमों में फैले भ्रष्टाचार को तो समाज में लगभग मान्यता ही प्रदान करा दी है क्योंकि काफी पहले से यह माना जाने लगा कि सरकारी नौकरी में है तो 'ऊपरी कमाई' तो होगी ही, लेकिन अब इसे संपूर्ण व्यवस्था की विकृति नहीं बल्कि बकायदा एक 'व्यवस्था' ही मान लिया गया है. सामान्य आदमी ने अब यह मान लिया है कि सरकारी अधिकारी न सिर्फ विभिन्न प्रकार के लुटेरों (ठेकेदारों, राजनीतिज्ञों, दलालों) को लूट की खुली छूट दे रहे हैं बल्कि गैंगस्टरों, माफियाओं, अपहरणकर्ताओं की ही भांति बाद में उनसे बकायदे अपना हिस्सा (हफ्ता, महीना, कमीशन, पर्सन्टेज) वसूल रहे हैं. इस तरह यदि देखा जाए तो परोक्ष रूप से इस देश के लुटेरे वास्तव में वे कुछ सरकारी अफसर ही हैं, जो इस देश की जड़ों में मट्ठा डालकर उन्हें खोखला कर रहे हैं. इन्हीं अफसरों ने ही राजनीतिज्ञों को भी भ्रष्टाचार का पाठ पढ़ाया और उनका वरदहस्त हासिल किया है. यहां यह कहना ठीक होगा कि जिस देश की नौकरशाही ईमानदार, कर्मठ और कर्तव्यपरायण होती है, उस देश की तरक्की सुनिश्चित होती है. मगर नौकरशाही का इसी के विपरीत आचरण होने पर उस देश का बंटाधार भी सुनिश्चित होता है. यही इस देश में हो रहा है, जहां न तो नौकरशाही ईमानदार और कर्तव्यपरायण रह गई है न ही राजनेता. इस गठजोड़ ने ही वास्तव में भ्रष्टाचार की इस समस्या को अति विकराल बना दिया है. आज यदि ईमानदार और कर्तव्यपरायण अधिकारी कुछ करना भी चाहते हैं तो लालू, मुलायम, मायावती जैसे तथाकथित राजनेताओं और अशोक गुप्ता, ए.के. मित्तल, ए. के. चंद्रा, बी. डी. राय, अनिल जोशी, अनिल कुमार, नारायणदास जैसे महाभ्रष्ट अधिकारियों का गठजोड़ न उन्हें कुछ करने देता है और न खुद करता है बल्कि उसका उत्पीडऩ बढ़ जाता है.
अब शीर्ष स्तर पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) और केन्द्र सरकार के कानून मंत्री के बयान सुनने के बाद भी देश के आम आदमी के मन में एक पुख्ता आश्वासन पैदा होने के बजाय यह आशंका उपज रही है कि उनके यह बयान कहीं पहाड़ों के बीच प्रतिध्वनित आवाज तो नहीं है, जो वास्तव में सुनने में तो बहुत सुंदर, मनमोहक लगती है, मगर निरुद्देश्य होती है. संविधान की धारा 311 किसी भी सरकारी अधिकारी या राजनेता के खिलाफ कोई भी कानूनी या आपराधिक कार्रवाई शुरू करने से पहले सक्षम प्राधिकारी (एप्रोपिएट अथॉरिटी) से तत्संबंधी पूर्व अनुमति लेने को अनिवार्य बनाती है. इसका उद्देश्य यह था कि निहितस्वार्थी लोगों को जानबूझकर किसी सरकारी अधिकारी को तंग या परेशान करने अथवा सरकारी गतिविधियों में अड़चन पैदा करने से हतोत्साहित किया जा सके. परंतु इसका व्यावहारिक अर्थ यह निकाला गया है कि यदि कोई महाभ्रष्ट सरकारी अफसर उक्त तथाकथित एप्रोपिएट अथॉरिटी को पटाये रखे और उसे भी उसका हिस्सा पहुंचाता रहे तो उनके खिलाफ जांच या कार्रवाई की ऐसी कोई अनुमति वहां से नहीं मिलेगी. और इस तरह उन्हें दिनदहाड़े और सरेआम चौराहे पर खड़े होकर खुली लूट की छूट मिल जाती है. यही तो हो रहा है. रेलवे में भी ऐसे कई मामले हैं. जिनमें कई महाभ्रष्टों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति रेलवे बोर्ड के सक्षम अधिकारियों ने नहीं दी है और सीबीआई के ऐसे तमाम मांग पत्र रेलवे बोर्ड में धूल खा रहे हैं, परंतु आश्चर्य यह है कि जिन अशोक गुप्ता, पूर्व जीएम/उ.प.रे. के खिलाफ विजिलेंस जांच की अनुमति नहीं दी गई, उन्हीं के खिलाफ सीबीआई छापे की अनुमति दे दी गई, जबकि द.रे. के एक पूर्व जीएम के खिलाफ ठीक ऐसे ही मामलों में आज करीब दो साल बाद भी सीबीआई को रेलवे बोर्ड ने इजाजत देना जरूरी नहीं समझा है, ऐसा क्यों?
अब सीजेआई ने इस कानून और व्यवस्था को बदलने की वकालत की है और कानून मंत्री ने किन मामलों में इजाजत ली जानी चाहिए और किनमें सीधे कार्रवाई शुरू की जा सकती है, इसे संशोधन के जरिए स्पष्ट किए जाने की तरफदारी की है, परंतु ध्यान देने योग्य बात यह है कि यही वह सीजेआई हैं, जिन्हें सनसनीखेज बयान देने और प्रचार में बने रहने की बुरी लत है. अभी कुछ समय पहले जब न्यायपालिका को सूचना अधिकार के तहत लाने और न्यायाधीशों को अपनी सम्पत्ति की सार्वजनिक घोषणा करने पर बहस चल रही थी तब इन्हीं माननीय सीजेआई ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि इससे न्यायाधीशों पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा और न्यायिक प्रक्रिया बाधित होगी. परंतु जब कर्नाटक हाईकोर्ट के एक जज ने न सिर्फ एक लेख लिखकर न्यायाधीशों की संपत्ति सार्वजनिक करने की वकालत कर दी बल्कि सभी न्यायाधीशों की तरफ से बोलने के सीजेआई के अधिकार के प्रति सवाल खड़ा कर दिया तो इन्हीं माननीय सीजेआई ने उक्त जज के खिलाफ टिप्पणी करते हुए कहा कि उसे प्रचार पाने की भूख है. यह विरोधाभाष क्यों? अत: स्थिति यह है कि शीर्ष स्तर पर जो लोग निर्णय लेने की स्थिति में हैं, सर्वप्रथम उनके वक्तव्यों में कोई विसंगति नहीं होनी चाहिए और उन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए कि अब भारत में भ्रष्टाचार का इलाज फोड़ा नहीं कैंसर समझकर किए जाने की जरूरत आ पड़ी है. यदि यह 'ऑपरेशन' वास्तव में किया जाना है तो नेताओं और सरकारी अफसरों सहित न्यायाधीशों के भी विशेषाधिकारों को अविलंब समाप्त किया जाना चाहिए.

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