Sunday 25 March, 2012


26 अप्रैल को नहीं अब 9 मई को होगा सेमिनार 


"भारतीय रेल का पुनरुत्थान - एक चिंतन"


(RESURRECTION OF INDIAN RAILWAYS - AN INTROSPECTION)


किन्हीं अपरिहार्य कारणों की वजह से उपरोक्त विषय पर 26 अप्रैल को आयोजित होने वाले सेमिनार की तारीख को थोडा सा आगे बढ़ाया जा रहा है. अब यह सेमिनार 9 मई को होगा. सेमिनार का स्थान नहीं बदला है, यह वाय. बी. चव्हाण प्रतिष्ठान सभागृह में ही होगा. एक लम्बे अंतराल के बाद 'परिपूर्ण  रेलवे समाचार' द्वारा पिछले कई सालों से चली आ रही अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए इस बार एक नए और समसामयिक विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया जा रहा है. 

इस महत्वपूर्ण और समसामयिक सेमिनार में भारतीय रेल के पांचो मान्यताप्राप्त फेडरेशनों के उच्च पदाधिकारियों सहित रेलवे बोर्ड के सभी सदस्यों और जोनल रेलों के महाप्रबंधकों को भी आमंत्रित किया गया है. इसके अलावा बाहर से भी कुछ रेल विशेषज्ञों को इसमें शामिल होने हेतु बुलाया गया है. 

यह सेमिनार वाई. बी. चव्हाण प्रतिष्ठान सभागृह, जनरल जगन्नाथ भोसले मार्ग, मंत्रालय के पास, नरीमन पॉइंट, मुंबई - 21 में 26 अप्रैल को नहीं अब 9 मई को  आयोजित किया जाएगा. 

इस बार ऐसे समसामयिक विषय को लेकर 'रेलवे समाचार' द्वारा सेमिनार का आयोजन किया जा रहा, जिससे करीब 160 साल पुरानी इस महान संस्था के 'पुनरुत्थान' के बारे में एक सार्थक चर्चा की जा सके. इसीलिए इस बार का विषय "भारतीय रेल का पुनरुत्थान - एक चिंतन"  रखा गया है. सेमिनार में बड़ी संख्या में रेलकर्मियों और यात्रियों एवं यात्री संगठनों से भाग लेने की अपील की जाती है. 


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Saturday 17 March, 2012



तीव्रगामी रेल से ही कम हो सकती है भीड़ 

भारतीय रेल की हालत 'भेड़िया धसान' की जैसी हो रही है, बल्कि यह कहना शायद ज्यादा सही होगा की हो गई है. 'भेड़िया धसान' वह स्थिति है जब बहुत सारे भेड़िए किसी संकट की आशंका से एक ही मांद में ठुंस जाते हैं. भारतीय रेल के जनरल और स्लीपर कोचों की हालत कुछ ऐसी ही हो रही है. और अब तो यह हालत थ्री एसी कोचों की भी होने लगी है, जबकि सुबह-शाम के पीक आवर में मुंबई की लोकल ट्रेनों में भीड़ की हालत तो 'भेड़िया धसान' से भी ज्यादा बदतर हो रही है. समय पर टिकट का न मिलना, टिकट खिड़कियों पर हर वक़्त लम्बी-लम्बी कतारों का लगा रहना यात्रियों के कीमती समय की बर्बादी तो है ही, बल्कि त्योहारों और छुट्टियों के सीजन में प्रत्येक ट्रेन की सामान्य क्षमता से कहीं ज्यादा प्रतीक्षा सूची (वेटिंग लिस्ट) का होना इस बात का प्रमाण है कि भारतीय रेल में भीड़ की स्थिति 'भेड़िया धसान' से भी ज्यादा बदतर हो गई है. आरक्षण न मिलना, और अब तो चार-चार महीने पहले से लोगों को अपने यात्रा प्रोग्राम बनाने के लिए मजबूर होना, मतलब यह कि भारतीय रेल में यात्रा करने की कल्पना करके ही रोंगटे खड़े कर देने वाली स्थिति आँखों के सामने लहराने लगती है. 

रेल यात्रियों को अपनी यात्रा के दौरान लगभग हर कदम पर कठिनाईयों से जूझना पड़ता है. टिकट खिड़की से लेकर गंतव्य तक पहुँचने की उनकी यह तकलीफ त्योहारों और गर्मी की छुट्टियों में कई-कई गुना बढ़ जाती है. भारी कठिनाई के इस पीक सीजन में बच्चों, बुजुर्गों और बीमार परिजनों को लेकर भारतीय रेल में यात्रा करना एवरेस्ट की दुर्गम चोटियों पर चढ़ने से कम जोखिम भरा काम नहीं होता. शहर हमेशा से मनुष्य के आकर्षण का केंद्र रहे हैं. लेकिन ये शहर आज विकास के परिचायक बन चुके हैं. मनुष्य की रोजी-रोटी कमाने और प्रगति के इंजन बन चुके हैं आज ये शहर..! शहरों की मात्र पांच प्रतिशत जमीन पर दुनिया का आधा उत्पादन हो रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरों में लोगों की आय और वस्तुओं का अधिक उपभोग जहाँ 'पुल-फैक्टर' का काम कर रहा है, वहीं गावों की गरीबी और बेरोजगारी 'पुश-फैक्टर' की भूमिका निभा रही है. यह दोनों 'फैक्टर' मिलकर न सिर्फ गावों को वीरान कर रहे हैं, बल्कि शहरों में भीड़ भी बढ़ा रहे हैं. अगर शहरों को गावों से तीव्रगामी रेल नेटवर्क के जरिए जोड़ दिया जाए, तो शहरों में बढती इस भीड़ को काफी कम किया जा सकता है. इससे लोग गाँव को छोड़े बिना भी अपनी आय को बढ़ा सकते हैं. इसके साथ ही खाद्यान्नों, फलों - फूलों और सब्जियों की आवाजाही भी सुगम होगी और ज्यादा बढ़ेगी भी, जिसका प्रभाव समूची अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा. 

शहरों के फैलाव ने उदारीकरण के नीति-निर्माताओं की चिंता बढ़ा दी है. हर शहर अपने आसपास की उपजाऊ भूमि को निगले जा रहा है. अब कुछ बड़े शहर अथवा महानगर आपस में मिलकर कई 'मेगा-रीजन' बना रहे हैं. भारत में दिल्ली के आसपास नोएडा, गाजियाबाद और गुडगाँव मिलकर 'एनसीआर' यानि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बन गए हैं, मुंबई पूरे ठाणे और रायगड जिले को हड़प रही है. इसी तरह देश के कई अन्य शहर भी अपने आसपास के गावों और कस्बों को लील रहे हैं. जबकि जापान में ओसाका-क्योटो को और हांगकांग शेनजेन-ग्वांझाऊ को निगल गए हैं. ये मेगा-रीजन अथाह सम्पदा के चालक बनकर सामने आए हैं. यह जानना आश्चर्यजनक हो सकता है कि दुनिया के मात्र 25 बड़े शहरों के हिस्से में विश्व की आधी संपत्ति आती है. भारत और चीन की भी आधी सम्पदा इनके पांच बड़े महानगरों में ही सिमटी हुई है. लेकिन जिस गति से शहरों में भीड़ बढ़ रही है, उस गति से यहाँ जन-सुविधाओं में वृद्धि नहीं हो पा रही है. यही वजह है कि शहरों की पहचान 'समस्या स्थलों' के रूप में होने लगी है. 

स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि एक तरफ महानगरों के दड़बेनुमा कमरों-खोलियों में भीड़ बढती जा रही है, तो दूसरी तरफ गावों-कस्बों के लाखों घरों में ताले बढ़ते जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में यदि गावों और शहरों के बीच आवाजाही तीव्र और सुगम-आसान बना दी जाए, तो इससे न सिर्फ शहरों में भीड़ कम होगी, बल्कि देश का सर्व-समावेशी विकास होना भी संभव हो सकता है. विश्व बैंक ने अपने एक आकलन में कहा है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में यातायात व्यवस्था जितनी सुगम और सुविधा-संपन्न होगी, अर्थव्यवस्था का उतना ही फायदा और विस्तार होगा. किसी देश की परिवहन व्यवस्था सस्ती और सुगम होने से न सिर्फ लोगों के बीच व्यापार में बढ़ोत्तरी होती है, बल्कि कारोबार की लागत में भी काफी कमी आती है. जापान की राजधानी टोकियो में प्रतिदिन करीब 80 लाख लोग बाहर से आकार अपना काम करते हैं, और चले जाते हैं, तो यह कमाल वहां की तीव्रगामी और वक़्त की पाबन्द रेल का ही है. कहने को तो लगभग इतने ही लोग रोज मुंबई में भी आते-जाते हैं, मगर जापान और मुंबई की रेल व्यवस्था में हवाई जहाज और बैल-गाड़ी का अंतर है. जबकि जापान दो बार परमाणु हमलों और कई बार कई प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होकर फिर उठ खड़ा हुआ है, मगर मुंबई ने वैसी कोई आपत्ति नहीं झेली है, फिर भी हम जापानी लोगों जैसे कर्मठ नहीं बन पाए. 

कोटा, बनारस और अमृतसर से रोज दिल्ली आकर जैसे घर से ही दफ्तर आने-जाने की कल्पना आज आज़ादी के 66 साल बाद भी नहीं की सकती है, वैसे ही भुसावल, सोलापुर या वड़ोदरा से रोज मुंबई आकर नौकरी करने कल्पना साकार नहीं हो पाई है. इसी प्रकार झाँसी, गोरखपुर, बस्ती, फ़ैजाबाद, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्ज़ापुर, इलाहबाद, प्रतापगढ़, फतेहपुर और रायबरेली से रोज लखनऊ या इलाहबाद आकर स्थानीय तौर पर नौकरी करना आज भी लोगों की कल्पना से बाहर है. देश में ऐसे अन्य कई बड़े शहर और प्रदेशों की राजधानियां हैं, जहाँ तीव्रगामी रेल नेटवर्क होना आज की प्रथम आवश्यकता है. किसी तरह यदि यह संभव हो जाए, तो लाखों लोग दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई सहित अहमदाबाद, लखनऊ, बंगलौर, भोपाल, भुवनेश्वर, बिलासपुर आदि मंझोले शहरों में भी बसने का सपना छोड़कर आसान जिंदगी गुजार सकते हैं. लेकिन इसके लिए कम से कम चार सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चलने वाली ट्रेनों की पटरियों का पूरा संजाल बिछाने की जरूरत पड़ेगी. भारतीय रेल में तीव्र गति का मतलब भले ही शताब्दी-राजधानी गाड़ियों की अधिकतम 130 किमी. प्रति घंटे की रफ़्तार से लगाया जाता हो, मगर दुनिया इस गति को आज बैलगाड़ी की गति मानती है, जो कि इसे न जाने कब का बहुत पीछे छोड़ चुकी है. इस सन्दर्भ में स्पेन ने सीमेंस-बोलरोई गाड़ी 2006 में 404 किमी. प्रति घंटे की गति से चलाई, तो चीन ने उसे पीछे छोड़ते हुए 416 किमी. प्रति घंटे की रफ़्तार वाली सीआरएच-3 ट्रेन चला दी, और जापान ने तो 518 किमी. प्रति घंटे की गति वाली बिना पहियों की मैगलेव रेल चलाकर इन सबसे बाजी ही मार ली है. 

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि धीमी गति के साथ ही अन्य कई प्रकार की बाधाएं भी भारतीय रेल की गति को सीमित कर रही हैं. रेल आधुनिकीकरण पर बुनियादी विकास के विशेषज्ञ और भारत में संचार क्रांति के जनक डा. सैम पित्रोदा और सुप्रसिद्ध परमाणु वैज्ञानिक डा. अनिल ककोड़कर की अध्यक्षता में रेल संरक्षा पर गठित की गई उच्चाधिकार प्राप्त समितियों ने हाल ही में प्रस्तुत की गई अपनी रिपोर्टों में भारतीय रेल की बदहाली की पुष्टि की है. इन रिपोर्टों के मुताबिक करीब 24 हजार मानव रहित लेवल क्रासिंगो और जगह - जगह टूटे - फूटे रेलवे ट्रैक से लेकर असुरक्षित डिब्बों तथा अपनी उम्र को कब का पार कर चुके 11500 रेल पुलों के कारण भारतीय रेल दुनिया की अन्य रेलों से बहुत पीछे छूट चुकी है. नई तकनीक के आभाव में पुराने ढंग के ट्रैक, कोच और वैगनो से किसी तरह भारतीय रेल का काम चल रहा है. यह न सिर्फ अत्यंत खतरनाक है, बल्कि यह बहुत अपर्याप्त भी है. देश की बढती यातायात अपेक्षाओं को पूरा किया जा सके, इसके लिए सम्पूर्ण ट्रैक से लेकर पूरे रोलिंग स्टाक तक और स्टेशनों से लेकर समस्त सिग्नल प्रणाली तक सब कुछ बदलने की जरूरत है. यह बदलाव तभी संभव हो पाएगा, जब पैसे की किल्लत दूर होगी. 

भारतीय रेल फ़िलहाल जिस तरह वोट बैंक का जरिया बनी हुई है, और जिस तरह इसे सत्ता की भागीदार क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों की चारागाह बना दिया गया है, उससे कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है कि निकट भविष्य में इसका आमूल-चूल कायापलट हो पाएगा. पिछले दस वर्षों में थोक मूल्य सूचकांक तीन सौ प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ गया है, मगर इस बीच रेलवे के यात्री किराए जस के तस बने हुए हैं. ममता बनर्जी जैसे तुनकमिजाज और अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने अपनी क्षेत्रीय और ब्लैकमेलिंग की राजनीति चमकाने के लिए भारतीय रेल का पूरा बंटाधार कर दिया है. इस पर अब भी तुर्रा यह है कि वह इसके किराए बढाए जाने का ही विरोध नहीं कर रही हैं, बल्कि उन्होंने अपनी ही पार्टी के रेलमंत्री को संसद में रेल बजट पेश करने के तुरंत बाद पद से हटा दिए जाने का फरमान प्रधानमंत्री को सुना दिया है. माल भाड़े से यात्री किरायों की भरपाई करने की गलत परम्परा भी भारतीय रेल की कंगाली का एक मजबूत कारण बनी है. माल वैगनो और यात्री कोचों के निर्माण के लिए नए कारखाने भी समय पर नहीं खड़े किए जा पा रहे हैं. यही वजह है कि जिस तेजी से यात्रियों की संख्या बढ़ रही है, उस तेजी से बोगियों का निर्माण - उत्पादन नहीं हो पा रहा है. रोलिंग स्टाक की कमी के साथ ही सीमित लाइन क्षमता और मालगाड़ियों की कछुआ चाल भी समय पर रेलवे से भेजे जाने वाले सामान को गंतव्य पर पहुंचाने में एक सबसे बड़ी बाधा है. रेलवे स्टेशनों के पास या नजदीक माल जमा करने और उसे चढ़ाने - उतारने की सुविधाओं वाले लाजिस्टिक पार्कों की कमी चौतरफा बनी हुई है. कंटेनरों से ढुलाई भी इस देश में बहुत ही मंहगी है. 

भारत के लाखों गावों - कस्बों को तीव्रगामी रेलगाड़ियों से जोड़ने और रेल यात्रा को सुलभ - सुगम और सुविधासंपन्न बनाने का लक्ष्य तभी हासिल हो पाएगा जब राष्ट्रीय स्तर पर इसकी कोई एक समग्र रेल नीति बनाई जाए. दुर्भाग्यवश, भारतीय रेल केंद्र में एक लम्बे अर्से से गठबंधन की राजनीति का शिकार बनकर रह गई है. इसके लिए केंद्र सरकार का कमजोर होना तथा उसमे क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा रहना एक बड़ा कारण है. क्षेत्रीय पार्टियों ने भारतीय रेल के असीमित संसाधनों का इस्तेमाल करके इसे अपनी राजनीति चमकाने का एक जरिया बना लिया है. केंद्र की सत्ता में भागीदार क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों से बनने वाले रेलमंत्री भारतीय रेल का दीर्घकालिक सुधार करने के बजाय अपनी पार्टी और अपने प्रदेश तथा यहाँ तक की अपने संसदीय क्षेत्र तक के हितों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. ऐसी स्थिति में ग्रामीण बाजार से सीधे बड़े शहरों और महानगरों से भारतीय रेल के जुड़ने की राह बहुत मुश्किल है. 
प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी 
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'ममता' के मोह को त्यागो सरदार जी..! 

रेल बजट के तुरंत बाद केंद्र की सत्ता में भागीदार तृणमूल कांग्रेस और उसकी अध्यक्ष पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जिस तरह हमेशा की भांति अपनी घटिया तुनकमिजाजी दिखाते हुए सरकार को ब्लैकमेल करने की कोशिश की है, उसे अब कतई बर्दास्त नहीं किया जाना चाहिए. केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अब ममता बनर्जी के प्रति अपनी 'ममता' का फ़ौरन त्याग करे. ममता बनर्जी चाहती हैं कि एक साफ-सुथरी छवि वाले रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को हटाकर एक ख़राब छवि वाले मुकुल राय को रेलमंत्री बना दिया जाए. कोलकाता की लिलुआ और कचारापारा रेलवे वर्कशाप से स्क्रेप की 'खरीदारी' कर-करके कथित राजनेता बन गए किसी व्यक्ति को यदि रेल महकमा थमा दिया गया तो यह निश्चित मान लिया जाना चाहिए कि वह व्यक्ति पूरी रेल को स्क्रेप में बेच डालने में कोई कोताही नहीं करेगा. इसके अलावा रेलवे के ही किसी स्क्रेप 'खरीदार', यहाँ 'खरीदार' का सन्दर्भ 'चोर' से लिया जाना चाहिए, क्योंकि कोई भी स्क्रेप खरीदार चोरी करने से कभी बाज नहीं आता है, को रेलमंत्री के रूप में यह देश कतई बर्दास्त नहीं करेगा. इसके साथ ही रेलवे के करीब 14 लाख रेलकर्मचारी और अधिकारी भी मुकुल राय को रेलमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते हैं. इस सन्दर्भ में रेलवे की पांचो फेडरेशनो ने दिनेश त्रिवेदी को रेलमंत्री बनाए रखने और उनके द्वारा की गई रेल किरायों में वृद्धि का समर्थन करते हुए प्रधानमंत्री को संयुक्त ज्ञापन भी दिया है. ममता बनर्जी लगातार केंद्र सरकार को ब्लैकमेल करती आ रही हैं. इस बार उन्होंने इसकी हद पार कर दी है. उन्होंने दिनेश त्रिवेदी को हटाकर मुकुल राय को रेलमंत्री बनाए जाने की एक चिट्ठी भी प्रधानमंत्री को भेजी है. 

इस बार प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व को अपने सदविवेक, अगर थोड़ा-बहुत बचा हो तो, का परिचय देते हुए ठीक वैसा ही निर्णय लेना चाहिए, जैसा उन्होंने करीब चार साल पहले भारत - अमेरिका परमाणु समझौते पर शक्ति परीक्षण के समय वामपंथी पार्टियों की बाबत लिया था. पिछले लगभग तीन वर्षों से ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार के प्रति जैसा रवैया अपना रखा है, उसे देखते हुए, और कांग्रेस नेतृत्व में अगर थोड़ा भी आत्म-सम्मान बाकी है तो, उनकी पार्टी को अब एक दिन के लिए भी केंद्र सरकार के हिस्से के रूप में बर्दास्त नहीं किया जाना चाहिए. केंद्र की सत्ता में भागीदार होते हुए भी राष्टपति के अभिभाषण पर संशोधन प्रस्ताव लाकर और रेल बजट पेश करने के तुरंत बाद ही रेलमंत्री को हटा देने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर ममता बनर्जी ने देश की समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ अत्यंत घिनौना मजाक किया है. ममता बनर्जी की तुनकमिजाजी और घटिया राजनीति तथा ऊल-जलूल दलीलों को देखते हुए अब यह भी साफ दिखने लगा है कि उनके नेतृत्व में खुद पश्चिम बंगाल की लुटिया भी जल्दी ही डूब जाने वाली है. 

ममता बनर्जी ने घटिया तर्क दिया है कि रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट प्रस्तुत करने से पहले उस पर पार्टी की राय नहीं ली थी. परंपरा के मुताबिक रेलमंत्री और वित्तमंत्री अपना - अपना बजट बनाने से पहले जिससे चाहें उससे फीडबैक ले सकते हैं, और वह लेते भी रहे हैं. इस बार भी यह राय उन्होंने सभी तबकों से ली है. इस बार रेलमंत्री ने तो इसके लिए सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों से खुद वहां जा-जाकर उनकी राय लेने में भी कोई परहेज नहीं दिखाया. नियम के मुताबिक एक बार बजट बना लेने के बाद उसमें मौजूद तथ्यों का खुलासा संसद के अलावा अन्य किसी के सामने नहीं किया जा सकता. ममता बनर्जी खुद दो बार रेलमंत्री रह चुकी हैं. इतनी साधारण मगर बुनियादी बात का उनको कोई ज्ञान न हो, ऐसा नहीं हो सकता. उनका कहना है कि दिनेश त्रिवेदी ने पार्टी की विचारधारा के खिलाफ जाकर गरीब तबके के रेलयात्रियों का किराया भी बढ़ा दिया. उन्हें गरीब रेलयात्रियों की तो बड़ी चिंता है, मगर उन्होंने पश्चिम बंगाल में जो पिछले एक वर्ष से लागू करके बिजली की दरें बढाई हैं, उससे पश्चिम बंगाल के गरीबों की चिंता उन्हें नहीं है? यह उनका कैसा दोमुंहापन है? 

तुनकमिजाज और घटिया राजनीति की मिसाल बन चुकी ममता बनर्जी की समझ में यह सीधी सी बात क्यों नहीं आती है कि रेलवे हो या अन्य कोई सरकारी उद्यम, अगर वह खुद अपना खर्च नहीं निकलता है और अगर उसकी भरपाई सरकारी खजाने से करनी पड़ती है, तो इसका सर्वाधिक बोझ मुद्रा-स्फीति के रूप में पलट कर सबसे ज्यादा उस गरीब तबके के ऊपर ही पड़ता है. जिनमें से कुछ लोग तो शायद कभी रेल में पाँव भी नहीं रखते होंगे और जिनकी खैर-ख्वाही की झंडा-बरदारी ममता बनर्जी कर रही हैं. ममता बनर्जी की ऐसी घटिया और दिवालिया समझ, जिसके मुताबिक सरकार का काम किसी सस्ती लोकप्रियता के पीछे घिसटते रहने के सिवाय और कुछ भी नहीं है, सरकार तो क्या एक मामूली सी परचून की दूकान चलाने के लिए भी सर्वथा अक्षम है. 

हमें यह मान लेने से अब कोई गुरेज नहीं करना चाहिए कि यहाँ सत्ता में भागीदारी की राजनीति अब सीधे 'गवर्नेंस' के साथ टकराव पर उतारू हो गई है. कोई भी सरकार इस तरह तो नहीं चल सकती है, और न ही काम कर सकती है कि उसके सारे विभाग अपने - अपने मंत्रियों के आलाकमान का हुक्म मानते हुए अलग-अलग दिशाओं में चलें. अगर ऐसी नौबत आ जाए, जो कि ममता बनर्जी की तुनकमिजाजी और ब्लैकमेल की घटिया राजनीति के चलते आ ही गई है, तो या तो विरोधी विचारधाराओं को (ममता बनर्जी को) बाहर का रास्ता दिखा दिया जाना चाहिए, अथवा अपनी थुक्का-फजीहत कराने के बजाय सरकार को ही अपनी गरिमा को बचाए रखने के लिए सत्ता से विदा होने का कड़वा फैसला कर लेना चाहिए. इस परिप्रेक्ष्य में अब यह पूरा देश प्रधानमंत्री और यूपीए नेतृत्व, दोनों से उपरोक्त दोनों में से किसी एक निर्णय पर जल्दी से जल्दी पहुँचने की अपेक्षा करता है. 
प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी 
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Thursday 15 March, 2012



NOW THE SEMINAR WILL BE HELD ON 9TH MAY


National Seminar on
"RESURRECTION OF INDIAN RAILWAYS - AN INTROSPECTION
NOW THE SEMINAR WILL BE HELD ON 9TH MAY

Dear Patron, 

It is a matter of great pleasure and pride to inform you that 'Paripurna Railway Samachar' is now in the 15th year of its publication after earning huge appreciation from ever expanding readership for its accurate and unsparing coverage of contemporary issues and concerns pertaining to stake holders of Indian Railways. Valuable comments from readers and other official quarters indicated creation of awareness and interest, that often resulted in fruitful investigation as well as redressal of problems and grievances. 

Each issue of 'Paripurna Railway Samachar' helped in highlighting the shortcomings inherent in the system. 'Paripurna Railway Samachar' has in fact, become synonymous with Railway ethos and culture. Encouraged by the enthusiasm shown by Railway personnel and general public in patronizing 'Paripurna Railway Samachar', steps have been taken to turn 'Paripurna Railway Samachar' into a National Railway fortnightly newspaper, so that the issues, topics and subjects which merit attention or redressal get taken up from all quarters and are not confined or limited to a privileged few. 

'Paripurna Railway Samachar' had organized seminars on various topics of prime importance. These seminars were attended by top brass of Railway Administration and were astounding success in terms of contents, messages, information and by the generous attendance of stakeholders at large. 

'Paripurna Railway Samachar' has now planned to organize another event to highlight the need for imbuing new life into this bulwark of India's future and economic growth so that Indian Railways may scale new heights like the bird of Phoenix. 

The focus of this National Seminar is on the "RESURRECTION OF INDIAN RAILWAYS - AN INTROSPECTION". The topic assumes significance in the present economic scenario in India and also brings relevance in the changing economic scenario across the globe. 


The Seminar will be held at 16.00 to 20.00 hrs on WEDNESDAY, 9th MAY 2012 at Yashwantrao Chavan Pratisthan Sabhagrih, Gen. J. N. Bhosale Marg, Near Mantralaya, Mumbai-400021. 

On this occasion a special issue of 'Railway Samachar' shall be brought out. Your views, thoughts, experiences and knowledge about Resurrecting this sleeping beauty, the Indian Railways and its relevance in making India a power to reckon with are earnestly solicited in the form of an ARTICLE/MESSAGE, along with your passport size photograph latest by 25th April 2012 for publishing in this issue, so that the same can be shared and appreciated by the valuable readers of 'Paripurna Railway Samachar'


Regards

Suresh Tripathi

Editor
Railway Samachar
Contact : 09869256875.
www.railsamachar.com
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Email : railwaysamachar@gmail.com

AN APPEAL TO THE PRIME MINISTER 
OF INDIA FROM "RAILWAY SAMACHAR"
Dated : 15 March 2012.
Respected Sir,
The "Paripurna Railway Samachar" a fortnightly newspaper, wholeheartedly support the rail fare hike announced yesterday in the Lok Sabha by Shri Dinesh Trivedi, Minister for Railways, in the Railway Budget for the year 2012-13. The increase is not only long overdue but also modest in its impact. The Railway Budget is also replete with agenda on Safety and Modernisation of the Railways, which will ultimately offer Safe, Secure and Smooth journey to over about two crore railway passengers per day of this country.
"Paripurna Railway Samachar" do not agree to any attempt to roll back the proposed fare hike as it will adversely impact not only Safety of Rail Travel, but also the financial stability and sustainability of the Railways. A roll back without matching subsidy from the General Exchequer will push the Indian Railways to the brink of collapse.
The media hype created against the budget is invented and baseless. Any sane thinking person who wants India to prosper will support the current railway budget as it addresses certain vital issues that go in the interest of nation building. Common man today do not clamor simply if his rupee vanishes from mobile phone and the Indian Media is doing that every day through gimmicks but no one is worried of that huge loss.  Each paise spent in buying a railway ticket brings a lot of value back to citizens.
Honourable Prime Minister of India should show the mettle to appreciate and implement the recommendations of railway budget. 
Regards
Suresh Tripathi
Editor
105, Doctor House,
Raheja Complex,
KALYAN(W)-421301.
Distt. - THANE, Maharashtra.
Mo. No. 09869256875.
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