Friday 4 September, 2009

झूठ की शिक्षा
प्रेमपाल शर्मा
मम्मी मैं कौन-सी क्लास में हूं, वाक्य जब नौ-दस वर्षीय बच्ची के भोले मुंह से निकला तब मेरा ध्यान उधर गया. तैराकी प्रतियोगिता के लिए आए बच्चे अपने-अपने मां-बाप के दरख्तों के साये में खड़े थे. सफलता, असफलता या प्रथम आने का बच्चों से कहीं ज्यादा तनाव अभिभावकों के चेहरे पर पढ़ा जा सकता था. क्योंकि ऐसी प्रतियोगिता में बच्चों की उम्र का एक-एक साल भी बहुत मायने रखता है. जैसे जन्मतिथि के प्रमाण पत्र के हिसाब से तो प्रतियोगी एक वर्ग में आता है, जबकि स्कूल की जिस कक्षा में वह पढ़ रहा है उस हिसाब से उसे अगले आयु वर्ग में होना चाहिए. बच्चों के मां-बाप को भी यह पता है. इसलिए वे प्रतिद्वंद्वी बच्चों पर नजर रखते हैं.
बचपन से ही झूठ को हमारी रक्त कणिकाओं में डालने के अनगिनत उदाहरण हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में मिल जाएंगे. जन्मतिथि और झूठ का बड़ा प्रगैतिहासिक रिश्ता रहा है. अनपढ़ होने के चलते स्कूल के रजिस्टर में जन्म तिथि कुछ से कुछ लिख जाना तो क्षम्य है, मगर उन शातिर दिमागों का क्या किया जाए जो पैदा होने से पहले ही सरकारी नौकरी की खातिर कुछ से कुछ लिखाते हैं. आजादी के तुरंत बाद तथाकथित पढ़े-लिखे परिवार के हर बच्चे की जन्मतिथि का संबंध सच से नहीं रहा, यह सच है, बल्कि इस तथ्य से रहा है कि कैसे सरकरी नौकरी की कुर्सी पर वह दो-चार साल ज्यादा बैठ सके. अधिकतर इसे स्वीकार तो करते हैं, लेकिन इस भयावहता का अहसास शायद नहीं कर पाते कि झूठ की शिक्षा कैसे सारे धर्म, नैतिकता को बेधती हुई हमारे मन मस्तिष्क में प्रवेश कर गई है. जहां काम करने वाले जन्म से ही झूठे हों, वह तंत्र सम्मिलित झूठ का ही प्रतीक होगा.
कई बार अवकाशप्राप्ति के करीब पहुंचे, लेकिन उसी के कारण अगले पद की आकांक्षा में वे फिर जन्मतिथि बदलवाने के लिए पंडित, मौलवी की पोथी -पत्री, जन्मकुंडली, हरिद्वार या बनारस की मुंडन तिथि ले आते हैं कि मां-बाप ने जो लिखाया वह गलत था. असली तो यह है और मां-बाप की गलती का खामियाजा मैं क्यों भुगतूं. अपने माने सच के सिद्धांत की खातिर ऐसे कितने ही मामले न्यायालयों में लंबित हैं. सरकारी परजीवियों के जीवन दर्शन का नमूना है यह.
हाल ही में कुछ वरिष्ठ सरकारी अधिकारी प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजे गए थे. उन्हें और सक्षम, चुस्त-दुरुस्त, वैश्विक दृष्टि से संपन्न बनाने की खातिर. होटलों के अपने नियम-कायदे होते हैं. मसनल नाश्ता मुफ्त, मगर रात का खाना पांच सितारा अपने पैसे से. रात के खाने का पैसा बचाने की खातिर इन्होंने 'मनाÓ लिखा रहने के बावजूद अपने पैकेट पराठे, राजमा-चावल कमरे के फ्रिज में लगा दिए और फ्रिज का सामान बाहर. कंप्यूटर की अक्ल के हिसाब से जो चीज बाहर निकली उसका बिल जुड़ गया. हो-हल्ले, झगड़े में सारी ट्रेनिंग का मकसद खत्म. एक और घटना में कमरे के अंदर से टेलीफोन करने में बिल थोड़ा ज्यादा लगा, तब भी झगड़े ने सारी ट्रेनिंग की मिट्टïी पलीद कर दी. जब सारी हिदायतें साफ लिखी हुई हैं तो झूठ बोलने की जरूरत क्यों? लेकिन जन्म से जुड़ी चीजों का क्या करें?
दरअसल थोड़ा गहराई में टटोलें तो हमारा दिमाग झूठ-सच, पाप-पुण्य के इतने कबाड़, नकार, गोपनीयता से भरा रहता है कि किसी भी क्षेत्र में कुछ रचनात्मक उगने की गुंजाइश ही नहीं बचती. साहित्य हो या विज्ञान की खोज या शासन-प्रशासन, इतिहास, कला या दर्शन. धर्मगुरु जरूर रोज पैदा हो सकते हैं ऐसे कबाड़ में. झूठा, आडंबरी समाज कुछ नया पैदा कर ही नहीं सकता. फ्रायडीय विश्लेषण का सहारा लें तो हमारी आत्मा में गुदे ये फरेब पूरी उम्र हमें दूसरों को भी वैसा ही मानने को विवश किए रहते हैं. क्या जन्मतिथि के इस झूठे जीन की पहचान के बाद बदलाव संभव है?

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