Thursday 10 December, 2009

लावारिस मंत्रालय, लापरवाह रेलमंत्री

रेल मंत्रालय के कामकाज और रेल मंत्री के रवैये को लेकर अब आवाजें उठने लगी हैं. पिछले डेढ़-दो महीनों में करीब 8-10 छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाएं, जो कि सुर्खियों में आईं, और जो लोगों के सामने नहीं आ पाईं, वैसी दसियों घटनाओं ने रेल मंत्रालय के कामकाज पर सवालिया निशान लगा दिया है. रेल मंत्रालय की अंदरूनी स्थिति और फील्ड में उसके कामकाज तथा रखरखाव, सुरक्षा-संरक्षा की हालत पर चिंतित अधिकारियों का मानना है कि यदि यही स्थिति और अगले 6 महीनों तक रही तो जगह-जगह गाडिय़ां खड़ी होनी शुरू हो जाएंगी. और तब लाखों रेल यात्रियों के साथ देशभर में जो हड़कंप मचेगा, उसे देखते हुए रेलमंत्री का जैसा तुनकमिजाज रवैया है, वह समस्या से भाग खड़ी होंगी और हाथ उठा देंगी तथा इस्तीफा देकर तमाम समस्याओं से अपना पल्ला झाड़ कर इस सबका ठीकरा केंद्र सरकार के सिर फोड़कर अलग हो जाएंगी.

रेल अधिकारियों के यह विचार भले ही आज दूर की कौड़ी लग रहे हों, मगर रेलमंत्री के लापरवाह और तुनकमिजाजी रवैये को देखते हुए कल यह सच भी हो सकते हैं. क्योंकि जब स्वयं रेलमंत्री की ही अपने मंत्रालयीन कामकाज में कोई रुचि न हो, तो उनके मंत्रालय का क्या हाल हो सकता है. यह भले ही आम जनता से छिपा हुआ हो, मगर 14 लाख रेल अधिकारियों-कर्मचारियों और 'रेलवे समाचार' से तो कतई छिपा हुआ नहीं है. रेलमंत्री ममता बनर्जी का शायद यह मानना है कि उनकी तथाकथित ईमानदार छवि और जुझारूपन की आड़ में सब कुछ माफ हो जाएगा, तो यह उनकी गलतफहमी है. क्योंकि जिस तरह से उन्होंने सेक्रेटरी/रे.बो. और चेयरमैन के पदों पर महाभ्रष्ट एवं अकर्मण्य लोगों को बैठाए रखकर उन्हें अपना आशीर्वाद बख्शा है, और जिस तरह मनमानी करते हुए मेंबर इलेक्ट्रिकल/रे.बो. के पद पर नियम विरुद्ध एक अयोग्य अधिकारी की नियुक्ति अपनी जिद पर पीएमओ से करवाई है, और जिस तरह मेंबर इंजीनियरिंग/रे.बो. के पद पर उस अधिकारी को बैठने दिया, जिस पर 1250 करोड़ रु. का नुकसान देश एवं रेल को पहुंचाने के आरोप लगते रहे हैं, और जिस तरह प्रधानमंत्री की गर्दन पकड़कर उन्होंने महाप्रबंधक/पू.रे. को बदला अथवा द.रे. में शिफ्ट किया, और जिस तरह महाप्रबंधकों की नियुक्तियों में 6-7 महीनों की देरी हुई, और जिस तरह उसमें भी उन्होंने अपनी मनमानी की है और जिस तरह चुन-चुन कर मंडल रेल प्रबंधकों की नियुक्तियां की जा रही हैं, और जिस तरह और जिस उद्देश्य से एकमुश्त बीसों आरआरबी चेयरमैनों को बदला गया, और जिस तरह ईडीई/आरआरबी के पद पर एक संदिग्ध चरित्र एवं संदिग्ध विश्वसनीयता के अधिकारी को कोलकाता से लाकर रे.बो. में बैठाया गया है, यह सब लाखों रेल अधिकारियों - कर्मचारियों तथा 'रेलवे समाचार' से कतई छिपा हुआ नहीं है. उन्होंने महाप्रबंधक/पू.रे. को सिर्फ इसलिए रातोंरात शिफ्ट कर दिया क्योंकि वह अपने सिद्धांतों के खिलाफ जाकर अथवा उनको ताक पर रखकर उनके भाई की नाजायज मांगें पूरी नहीं कर थे. जिससे उनको पार्टी फंड नहीं मिल रहा था. रेलमंत्री उनसे इसलिए भी नाराज हो गईं कि दिल्ली से कोलकाता पहुंचने पर वह उनकी अगवानी में क्यों नहीं खड़े मिले.

इसकी पूछताछ करने पर उन्हें बताया गया कि वह विदेश दौरे पर हैं. इस पर वह और भी नाराज हो गईं कि उन्हें बताए बिना वे विदेश दौरे पर कैसे चले गए. जबकि सीआरबी ने उन्हें यह अनुमति दी थी और यह सीआरबी को ही ड्यूटी बनती थी कि वह रेलमंत्री को इस बारे में सूचित करते. यदि कोई गलती इस मामले में थी तो वह सीआरबी की थी, न कि महाप्रबंधक/पू.रे. की. इसके बाद रेलमंत्री के 'भाईसाहब' ने उनसे महाप्रबंधक/पू.रे. की यह शिकायत की कि अधिकारियों का गोल्फ टूर्नामेंट आयोजित कराने के लिए उन्होंने बहुत सारा पैसा इकट्ठा करवाया, मगर उनके काम करने से मना कर देते हैं. बताते हैं कि महाप्रबंधक ने 'भाई साहब' को कहा था कि वे ऐसा कोई काम नहीं करना चाहेंगे, जिसके लिए उन्हें अपने सिद्धांतों से समझौता करना पड़े. यही बात 'भाई साहब' ने अपनी 'दीदी' से पुन: दोहरा दी और इस तुनकमिजाज 'जगतदीदी' ने नए महाप्रबंधकों की ज्वाइनिंग के बाद और पीएमओ को बिना किसी पूर्व प्रस्ताव एवं संस्तुति के ही सिर्फ 'जबानी जमा खर्च' पर ही महाप्रबंधक/पू.रे. को बदल डाला. 'जगतदीदी' की यह दूसरी राजनीतिक मनमानी है. पहली एमएल के पद पर नियुक्ति वाली थी. इसी के बाद से रे.बो. के सारे मेंबर और रेलवे की सारी ब्यूरोक्रेसी 'जगतदीदी' के सामने नतमस्तक हो गई और इसी के बाद रेलवे का बंटाधार होना शुरू हो गया. यदि रेलवे के नौकरशाह अपना निहितस्वार्थ छोड़कर और अपने भ्रष्टाचार के अवसरों को थोड़ी देर के लिए दरकिनार करके रेल एवं देश हित में निर्भय होकर लालू और ममता जैसे भ्रष्ट एवं उद्दंड राजनीतिज्ञों को व्यवस्था के नफे-नुकसान के बारे में अवगत कराते हुए उनके फालतू और मनमानी तथा नियम विरुद्ध आदेशों को मानने से इंकार कर दें या उन पर अमल करने से पहले पीएमओ और राष्ट्रपति कार्यालय की भी राय ले लें, तो मंत्रियों की मनमानी पर कुछ हद तक रोक लग सकती है.

अब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जगतदीदी उर्फ रेलमंत्री ममता बनर्जी से रेलवे के कामकाज पर स्टेटस रिपोर्ट मांगी है. प्रधानमंत्री, जिनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा किसी भी तरह के शक-सुबहे के दायरे से बहुत दूर है, द्वारा अपने मंत्रिमंडल के एक कैबिनेट मंत्री से उसके मंत्रालय के कामकाज पर मांगी गई रिपोर्ट का निहितार्थ यह है कि सर्वप्रथम उक्त मंत्री की कर्तव्य परायणता एवं विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई है, दूसरे प्रधानमंत्री उसके कामकाज की और शैली तथा परिणामों एवं प्रत्यक्ष वस्तुस्थितियों से कतई संतुष्ट नहीं हैं, ऐसी स्थिति में इसका संदेश यही है कि संबंधित मंत्री या तो शर्म से चुल्लूभर पानी में डूब मरे अथवा पूरी बेशर्मी के साथ इस्तीफा देकर निकल ले. फिलहाल इन दोनों ही विकल्पों पर कोई मंत्री अथवा राजनीतिज्ञ खरा नहीं उतरता है, तो रेलमंत्री उर्फ जगतदीदी भी अपने पूर्व परिचित तुनकमिजाजी रवैये के बावजूद फिलहाल उक्त दोनों विकल्पों पर अमल नहीं करने वाली हैं. क्योंकि अगले साल के अंत तक प. बंगाल के विधानसभा चुनावों के बाद उन्हें वहां मुख्यमंत्री की कुर्सी दिखाई दे रही है. वह यदि वामपंथियों की 32 वर्षीय शासन व्यवस्था को राज्य में ढहाने में कामयाब रहती हैं तो इससे ज्यादा खुशी इस देश की और प. बंगाल की जनता के साथ-साथ 'रेलवे समाचार' को भी होगी, परंतु यदि क्षेत्रीय वरीयताओं और अपने भावी राजनीतिक स्वार्थों के मद्देनजर राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाई जाएगी तो इस देश की जनता के प्रतिनिधि स्वरूप 'रेलवे समाचार' ऐसे लापरवाह रेलमंत्री या राजनीतिज्ञ को कतई बख्शेगा नहीं.

ममता बनर्जी ने बतौर रेलमंत्री रेल मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद पहले 30 दिनों तक यानी एक महीने में 20 दिन रेल भवन (रे.बो.) और दिल्ली से नदारद रही थीं. जबकि पिछले 6 महीनों में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल और कैबिनेट की करीब 50 प्रतिशत बैठकों में उन्होंने भाग नहीं लिया. यहां तक वह उन कई मीटिंग्स में भी उपस्थित नहीं रहीं, जिनमें रेलवे संबंधी कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाने वाले थे. दरअसल तुनकमिजाज महिला राजनीतिज्ञ का दर्जा प्राप्त ममता बनर्जी का पूरा ध्यान प. बंगाल और उसके भावी विधानसभा चुनावों पर अटका हुआ है. वह समय-समय पर बुद्धदेब भट्टाचार्य सरकार पर तो अपनी शैली में आग उगलती हैं परंतु रेलवे के बारे में शायद ही अब तक कुछ कहा हो. पदभार संभालते ही उन्होंने जो डींगें मारी थीं, उन पर भी आज तक अमल नहीं कर पाई हैं. इसका प्रमुख कारण यह है कि वे रेल मंत्रालय को 'पार्ट टाइम' चला रही हैं और उनका रेलवे ज्ञान शून्य है. उनके पास अच्छे सलाहकारों की जहां कमी है, वहीं चापलूसों और भ्रष्टों का पूरा जमावड़ा उनके इर्द-गिर्द लगा हुआ है. ममता बनर्जी के इस लापरवाह और अडिय़ल रवैये ने संपूर्ण रेल मंत्रालय को असावधान और इसके कामकाज को दिशाहीन बना दिया है, जिसका खामियाजा निरीह रेल यात्रियों को भुगतना पड़ रहा है. जबकि आज जरूरत इस बात की है कि रेलवे की संपूर्ण सुरक्षा-संरक्षा एवं रखरखाव, जिसका पूरी तरह बंटाधार पूर्व रेलमंत्री कर गए हैं, के संबंध में तत्काल आवश्यक कदम उठाए जाने की आवश्यकता है. रेलवे में करीब पौने दो लाख पद रिक्त हैं, जिन्हें तत्काल भरा जाना जरूरी है. यह इसलिए भी जरूरी है कि तमाम नई रेलगाडिय़ां खुद उन्होंने भी घोषित की हैं और राजनीतिज्ञों की अपनी राजनीतिक जरूरत के हिसाब से तमाम गाडिय़ां हर साल बढ़ जाती हैं, इनके लिए अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत है, परंतु ममता बनर्जी को इस सब की कोई चिंता नहीं है.

पिछले डेढ़-दो महीनों में हुई रेल दुर्घटनाओं के बाद रस्म अदायगी और मुआवजों की घोषणा के अलावा अब तक उन्होंने कुछ नहीं किया है. रेल दुर्घटनाएं रोकने को लेकर उनके पास न तो कोई योजना है और न ही वैसी कोई सोच. मथुरा के पास हुई दुर्घटना में तो उन्होंने डीआरएम को शंट आउट कर दिया मगर ठाणे में रोड ओवर ब्रिज लोकल पर गिरने और लगभग 30 घंटों तक 70 लाख यात्रियों सहित पूर मुंबई अस्त-व्यस्त रहने के बावजूद यहां से किसी
भी अदने से अधिकार-कर्मचारी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराकर शिफ्ट नहीं किया गया, जबकि इलाहाबाद के पास दुर्घटना बच जाने और उसमें कोई गलती या संबंध न होने के बावजूद एक अधिकारी को शंट कर दिया गया.

अब सवाल यह उठता है कि क्या रेलवे जैसे अति महत्वपूर्ण और इस देश के सामाजिक, आर्थिक और चहुंमुखी जमीनी विकास से जुड़े मंत्रालय को केंद्र सरकार यूं ही ममता बनर्जी जैसी एक अत्यंत तुनकमिजाज और अविश्वसनीय मंत्री या राजनीतिज्ञ के भरोसे अथवा उसक मनमर्जी पर छोड़ सकती है? गठबंधन की मजबूरी वाली राजनीति ने रेल मंत्रालय को राजनीतिक तुष्टीकरण का एक उपकरण बना दिया है, क्योंकि सबसे ज्यादा परेशानी पैदा करने वाले अपने बड़े पार्टनर को यह मंत्रालय लूटने-खसोटने के लिए पकड़ा दिया जाता है, जिससे रेल मंत्रालय अब राजनीतिक चरागाह बनकर रहा गया है. कांग्रेस भी ममता की पूंछ पकड़कर प. बंगाल में अपनी खोई राजनीतिक जमीन तलाशने में लगी है. लेकिन केंद्र की सत्ता में भागीदार ममता बनर्जी को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि रेल मंत्रालय पटरी से उतर गया तो प. बंगाल सहित पूरे देश की जनता में भारी नाराजगी फैल जाएगी. इसके साथ ही उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि सारा फंड, सारी गाडिय़ां, सारी नई रेल परियोजनाएं बिहार में झोंक देने के बाद भी लोकसभा चुनाव में जनता ने पूर्व रेलमंत्री को जमीन पर ला पटका. कहीं ऐसा ही उनके साथ भी प. बंगाल में न हो.

No comments: