Saturday, 8 August 2009

छोटू से बालिका वधू तक

व्यंग्य : रवींद्र कुमार

श्री रवींद्र कुमार, मध्य रेलवे में मुख्य कार्मिक अधिकारी/प्रशासन हैं. अपने व्यस्ततम कार्यालयीन कामकाज के बावजूद वह समाज एवं प्रशासन की सम-सामयिक घटनाओं पर पैनी नजर रखते हैं. उनके कई व्यंग्य और कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. मंचों एवं गोष्ठियों में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रहती है. उनके चुटीले व्यंग्य समाज के हर पाठक वर्ग को न सिर्फ प्रभावित करते हैं बल्कि उन्हें एक अलग दृष्टिकोण भी प्रदान करते हैं. उनका प्रस्तुत व्यंग्य बच्चों के फिल्मों, सीरियलों, विज्ञापनों में काम करने के बरक्स तमाम जगहों पर काम करते बच्चों के शोषण की तरफ प्रशासन और समाज व्यवस्था का ध्यान आकर्षित करता है.

नेताजी ने अपने दोनों-तीनों नेत्र खोले तथा ठान लिया कि आज वो देश की फस्र्ट हैंड हालात जाने के रहेंगे. इसके लिए उन्होंने रिमोट से अपना प्लाज्मा टीवी खोला और देखा कि 'बालिका वधू' नामक सीरियल में छोटी बच्ची पर अत्याचार हो रहा है. उन्होंने एक बार फिर ठान लिया कि भले वे बाल-विवाह नहीं रुकवा पाए हैं. भले ही वे बाल वेश्यावृत्ति नहीं रुकवा पाए हैं. भले ही वे बाल-भिखारी या ढाबे के छोटू, तम्बी, रामू को नहीं बचा पाए, मगर इस बालिका वधू को तो बचा ही लेंगे. और कुछ वश नहीं चला तो बालिका वधू का प्रसारण तो रुकवा ही सकते हैं.

फिर उन्होंने देखा कि टीवी के एक अन्य चैनल पर जयश्री कृष्ण क बालकृष्ण लीला कर रहे थे. बस नेताजी भड़क गए. लोगों को पीने का पानी नहीं है और ये बालक दही-मक्खन, मलाई खा रहा है. और तो और चेहरे पर पोते घूम रहा है. कौन है इसका प्रोड्यूसर? बंद करो उसे और उसके सीरियल को. ये न केवल बालकृष्ण पर अत्याचार है बल्कि उन लाखों-करोड़ों बच्चों पर भी अत्याचार है जो ये सब 'एफोर्ड' नहीं कर सकते. अब भला सोचिए, बालकृष्ण बना बाल कलाकार इतना घी-मक्खन खा के बीमार पड़ गया तो? ये तो सरासर अत्याचार है...

हर चैनल का यही हाल है. किसी पर बच्चे नाच रहे हैं, किसी पर हंसा रहे हैं. किसी पर करतब दिखा रहे हैं, तो किसी पर गाए ही जा रहे हैं. एक 'स्लमडॉग मिलिनेयर' ने कितने बच्चे 'स्लमडॉग' बना दिए हैं. कितने बच्चे मिलिनेयर बना दिए हैं. इन सबसे नेताजी को क्या मिला? फूटी चवन्नी...

जस्सूबेन की ज्वाइंट फैमिली, उतरन, चक दे बच्चे, नन्हें उस्ताद, हंस दे इंडिया, सबको बंद करो. हमारे देश के बच्चों पर इतना अत्याचार. उनके बचपन का क्या होगा. नहीं.. नहीं... नेताजी के रहते बच्चों पर कोई और अत्याचार नहीं कर पाएगा. वे यह सहन नहीं करेंगे. देश के बचपन का वो ऐसे 'वेस्ट' नहीं होने देंगे.

अब आप ही सोचिए. अगर सभी बच्चे बालिका-वधू, उतरन, चक दे बच्चे और नन्हें उस्ताद वगैरह पर ही लगे रहेंगे तो हमारे ढाबों का क्या होगा? वहां कौन आपको दौड़-दौड़ के चाय पिलाएगा. कौन आपके लिए प्लेटें लगाएगा, उन्हें धोएगा, पोंछेगा कौन, ख्याल है आपको...! या सारे के सारे ढाबों को बंद कराने पर तुले हैं आप....!

और एक बात बताइये सब बच्चे अगर विज्ञापनों पर टीवी सीरियलों में, फिल्मों में काम करेंगे और बाकी बच्चे उन्हें देखने में टाइम खोटी करेंगे तो हमारे पटाखे कौन बनाएगा? हमारे बीड़ी उद्योग का क्या होगा? फिरोजाबाद के चूड़ी उद्योग, कांच उद्योग का क्या होगा? अलीगढ़ के चाकू-तालों का क्या होगा? मुरादाबाद में पीतल का काम, लखनऊ में चिकन का काम व भिवंडी में जरी का काम, यह सब कौन करेगा? भदोई में कारपेट कौन बुनेगा? और तो और ईंट-भट्ठों का तो भट्ठा ही बैठ जाएगा. कभी सोचा है आपने... या बस इन सब उद्योग-धंधों को चौपट कराने पर तुले हैं...! हमारे ट्रैफिक सिगनल पर भीख मांगने वाले बच्चों की ही करोड़ों की इंडस्ट्री है. आप क्या चाहते हैं...? ये बच्चे ये सब काम-धंधा छोड़कर टीवी के अंदर-बाहर बस बिगड़ते रहें...!

अच्छा एक बात बताइये, आप कौन सी इंडस्ट्री को बच्चों से परे समझते हैं. क्या ढाबे, क्या माचिस उद्योग, क्या पटाखा उद्योग, क्या घर में चौका-बरतन करने वाले, क्या सड़क पर करतब दिखाते बच्चे, क्या विज्ञापन, क्या फिल्में, क्या सर्कस... सभी जगह तो बच्चे ही बच्चे हैं. अब वक्त आ गया है कि बच्चों का यह शोषण जो कि फिल्मों और सीरियलों के माध्यम से हो रहा है, बंद हो.

हम शोषण नहीं रोक सकते तो न सही. हम फिल्म और सीरियल को तो रोक ही सकते हैं. हम रोक के रहेंगे. हमारे रासायनिक उद्योग ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या ये फालतू का नाच गाना.. नहीं... नहीं.. ये नहीं हो सकता...

चाचा नेहरू के भारत में उनके भतीजे-भतीजियां इस प्रकार सीरियलों में अपना बचपन गंवाए, यह हमें कतई मंजूर नहीं, चाचा नेहरु ने भारत को उद्योग-धंधों में अग्रणी बनाने का सपना देखा था. क्या आप नहीं चाहते उनका ये सपना सच हो. क्या आप नहीं चाहते हमारे देश के बच्चे कालीन उद्योग, कांच उद्योग, चमड़ा उद्योग, भिक्षा उद्योग के क्षेत्र में विश्व में नाम कमाएं? फिर ये बच्चों को सीरियलों में डालने की किसकी साजिश है. कहीं पड़ोसी देश की तो नहीं. हमें ये सब रोकना है...! सबको बंद करना है...!!

अरे भई, उस कानून का क्या हुआ, जो हमने 25 साल पहले बनाया था. हां...हां... वही बाल श्रम (रोकथाम और नियमन) कानून 1986. किस दिन काम आएगा वो...? लगाओ इन निर्माताओ पर. वो ये क्या कर रहे हैं. हमारे सभी उद्योग-धंधों को चौपट कर रहे हैं. बल्कि बच्चों का बचपन और भविष्य दोनों बिगाड़ रहे हैं. हम यह सहन नहीं करेंगे. यह सरासर देश के हित के साथ खिलवाड़ है. अत: जो बच्चे काम कर रहे हैं वो, उनके मां-बाप, जो उन्हें काम दे रहे हैं वो और जो दर्शक ये देख रहे हैं वो, इन सबको हमारे देश का, उसकी संस्कृति का कोई ख्याल नहीं है. वे सबके सब देश द्रोही हैं. सब को बंद करो....!!!

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