प.रे. सबर्बन सेक्शन में अब एक भी
अतिरिक्त ट्रेन चलाने की जगह नहीं
मुंबई : पिछले करीब एक साल से पश्चिम रेलवे सबर्बन सेक्शन की ग्रह दशा ठीक नहीं चल रही है. आये दिन कहीं ओएचई टूट जाता है तो कहीं लोकल या मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों का पेंटोग्राफ. ओएचई में उलझकर रह जाता है. तो
चलते-चलते नई लोकल गाडिय़ों की ट्रेक्शन मोटरें फेल हो जाती हैं, तो कहीं इनकी कपलिंग डिपार्ट हो जाती है. उधर वसई-विरार की यात्री संघर्ष समितियां रेल रोको की धमकियां दे-देकर रेल प्रशासन की नाक में दम किए हुए
है. इलेक्ट्रानिक मीडिया के बंदरछाप रिपोर्टर, जिन्हें रेलवे की कोई तकनीकी जानकारी नहीं होती है और न ही यह जानकारी करने या लेने अथवा समझने में उनकी कई रुचि है, प्लेटफार्मों और ट्रेकों या रेल परिसरों में अवैध रूप से कैमरा और माइक लेकर घुसकर, यात्रियों के मुंह में माइक घुसेड़ते हुए ऐसी-ऐसी बचकानी एक्सपोर्ट ओपीनियन दे रहे होते हैं कि कोई तनिक भी समझदार व्यक्ति का दिमाग भन्ना उठेगा. इस सबके साथ ही जेडआरयूसीसी और
डीआरयूसीसी के अधकचरे सदस्य भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपनी तथाकथित एक्सपर्ट सलाहें देकर सामान्य समझ रखने वाले यात्रियों को और ज्यादा भड़क रहे होते हैं. इनका कोई इलाज रेल प्रशासन के पास नहीं है.
हालांकि गत दिनों 40 लोकल ट्रेनें चलाकर पश्चिम रेलवे से एक बड़ी भूल हुई है, परंतु उसकी यह भूल यात्रियों के दबाव को देखते हुए क्षम्य भी है. तथापि यात्रियों को इससे भी कोई राहत नहीं मिल पाई है. लेकिन इन 40 अतिरिक्त फेरियों के शुरू होने के परिणामस्वरूप अब हालत यह है कि प.रे. के सबर्बन सेक्शन में एक लोकल अथवा मेल-एक्सप्रेस चलाने या निकालने के लिए स्पेस/पाथ नहीं बचा है.
इस संबंध में एक मंडल अधिकारी ने बताया कि प्रशासनिक तौर पर गत दिनों यह विचार किया गया कि शताब्दी के बेकार पड़े कोचों का इस्तेमाल करते हुए मुंबई सेंट्रल से सूरत के बीच प्रमुख स्टेशनों पर रोककर दिन भर में इसकी चार फेरियां चला दी जाएं, तो इससे अधिकांश भीड़ निकल जाएगी और लोकल के यात्रियों को भी भारी राहत मिल जाएगी. परंतु जब टाइम टेबल लेकर देखा गया तो पता चला कि मुंबई सेंट्रल से इसे निकालने के लिए एक मिनट का भी स्पेस उपलब्ध नहीं है. तब इसे बांद्रा टर्मिनस से चलाने पर विचार किया गया. मगर वहां की स्थिति यह है कि किसी तरह इस रेक को वहां से निकाले जाने का एक स्पेस मिला, मगर वापसी के लिए वह भी उपलब्ध नहीं है. अब इसके लिए बताते हैं कि वसई स्टेशन पर करीब 15 लाख रु. की लागत से पानी भरने और साइडिंग की व्यवस्था की जा रही है. यह व्यवस्था होने के बाद इस रेक को वसई से सूरत के बीच चलाया जा सकेगा.
उधर मोटरमैनों की अपनी समस्याएं हैं. सेंक्शन स्ट्रेंथ में कम मैन पावर उपलब्ध होने से उन्हें 12 से 18 घंटे ड्यूटी करनी पड़ रही है. हालांकि ओवरटाइम आज उनकी भी जरूरत है, परंतु इसे वह प्रशासन पर अहसान की तरह
लादते हैं. उनकी 'न्यूसेंस' की वजह से लगभग सभी अधिकारी उनसे खिन्न रहते हैं. अब करीब 100 नये मोटरमैनों के भर्ती हाल ही में की गई है और इन्हें चरणबद्ध तरीके से आवश्यक ट्रेनिंग दी जा रही है, जिससे अन्य रनिंग स्टाफ
के काम के घंटों में अवश्य कमी आएगी.
बोरीवली-विरार के बीच अतिरिक्त दो लाइनों का ग्राउंड वर्क तो येन-केन प्रकारेण पूरा करके लाइनें बिछा दी गई हैं, परंतु उनमें एसी ट्रेक्शन और सिग्नलों का एस एंड टी वर्क आज तक अधूरा है. जबकि बोरीवली से आगे तक के
यात्रियों को सिर्फ यह दिखाई दे रहा है कि लाइनें बिछ गई हैं तो उन पर नई और अतिरिक्त सेवाएं क्यों नहीं बढ़ाई जा रही हैं. इन्हें देखकर उनकी अपेक्षाएं बढऩा भी स्वाभाविक ही है परंतु जो काम अधूरे हैं, और उन पर गाडिय़ां क्यों नहीं चलाई जा पा रही हैं. इस बारे में उन्हें कौन अवगत कराएगा? रेल प्रशासन एवं यात्रियों के बीच यह संवादहीनता अथवा यात्रियों में जानकारी का अभाव ही शायद उनके आक्रोश का सबसे बड़ा कारण है. परंतु यात्रियों की बढ़ती संख्या पर भीड़ को देखते हुए उनकी यह अपेक्षा बढ़ाने के लिए भी कहीं न कहीं रेल प्रशासन ही जिम्मेदार है. क्योंकि वह बीच-बीच में कभी एसी लोकल तो कभी 15 डिब्बों वाली लोकल चलाने की 'पुडिय़ा छोड़कर उनकी अपेक्षाओं को हवा देता रहता है. जब एक भी नई सेवा चलाने के लिए उसके पास अब तनिक भी स्पेस उपलब्ध नहीं है, तो यह ऐसी लोल अथवा 15 कोचों वाली लोकल को रेल प्रशासन कहां घुसाएगा? यह सवाल अत्यंत स्वाभाविक है.
नई लोकल ट्रेनों से यात्रियों को भारी राहत मिली है, इसमें कोई शक नहीं है. इसके लिए एमआरवीसी और रेल प्रशासन दोनों की सूझबूझ के लिए यात्रियों ने उन्हें सराहा है. परंतु इनसे अब उन्हें शिकायतें भी होने लगी हैं. इन
शिकायतों में मुख्यत: इन कोचों की फिसलन भरी सतह और दो सीटों के बीच कम जगह का होना है. इसके अलावा फस्र्ट क्लास की इनकी सीटें भी चौड़ाई में कम है. जिससे इनमें डेढ़-दो घंटे लगातार बैठे नहीं जा सकता. हालांकि
एमआरवीसी ने इन शिकायतों को नये आने वाले रेकों में दूर कर देने का आश्वासन दिया है और इस हेतु उनकी टीम आईसीएफ का दौरा भी कर आई है परंतु शायद अब तक सेवा में आ चुके रेकों में यह शिकायतें दूर करने की कोई
गुंजाइश नहीं है.
इस बीच इन नई लोकल ट्रेनों की तमाम ट्रेक्शन मोटरें धड़ाधड़ फेल होनी शुरू हो गई. कहा गया कि निर्धारित से ज्यादा लोड वहन न कर पाने की वजह से यह मोटरें फेल हुईं. तथापि इसके कई अन्य गूढ़ एवन तकनीकी कारण हो सकते हैं. जिनके बारे में शायद सामान्य यात्री सोच भी नहीं सकेंगे. बहरहाल एमआरवीसी ने अचानक आ पड़, इस समस्या को गंभीरता से लिया और संबंधित कंपनी को सभी मोटरें रिप्लेस/रिपेयर करने में लगाया. बताते हैं कि गत तीन महीनों के दौरान ऐसी करीब 700 मोटरें संबंधित कंपनी के खर्च पर बदली या मरम्मत की गई है. इनकी कपलिंग टूटने (डिपार्ट होने) की समस्या भी गंभीर है. क्योंकि जहां प्रत्येक ढाई-तीन मिनट के अंतराल पर गाड़ी के पीछे गाड़ी और गाड़ी के ऊपर गाड़ी चलाई जा रही हो. भीड़ के समय अचानक कपलिंग टूटने या ओएचई अथवा पेंटोग्राफ फेल होने, कोई एक भी सिगनल फेल हो जाने से न सिर्फ दूर तक गाडिय़ों की लंबी कतार लग जाती है बल्कि इससे लाखों यात्रियों की नाराजगी पैदा होती, जो कि अपने ऑफिस की नाराजगी पैदा होती, जो कि अपने ऑफिस या घर समय पर नहीं पहुंच पाते हैं और तब वे अपनी या मुंबई की सबसे विश्वसनीय यातायात सेवा रेलवे (सबर्बन सर्विस, जो कि मुंबई लाइफ लाइन है, और रेल प्रशासन को ही कोसने लगते हैं.
हालांकि पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक श्री आर. एन. वर्मा और डीआरएम/मुंबई सेंट्रल श्री सी. पी. शर्मा के प्रयासों में कोई कमी नहीं है. इस बात से न सिर्फ उनके तमाम सहयोगी अधिारी और मातहत कर्मचारी वाकिफ हैं बल्कि 'रेलवे समाचार' भी इससे सहमत है. इन दोनों कर्मठ अधिकारियों की कड़ी मेहनत और काम के प्रति समर्पण तथा ईमादारी में भी कोई कमी नहीं है. दोनों ही अधिकारियों को एक साथ अक्सर किसी नी किसी उपनगरीय स्टेशन अथवा सेक्शन में ओएचई/सिगनल/इंजीनियरिंग कार्यों की समीक्षा/निरीक्षण करते देखा जा सकता है. देर रात तक अपने कार्यालयों में भी इन्हें बैठे और फाइलें निपटाते हुए देखा जाता है. मगर यात्रियों की एवरेस्ट से भी ऊंची होती जा रही आकांक्षाओं के सामने यह दोनों अधिकारी अब शायद स्वयं को ही कम पाने लगे हैं. क्योंकि वर्तमान ढांचे में अब एक भी अतिरिक्त सेवा बढ़ाने का कोई चांस उनके पास नहीं बचा होने से वह दोनों अधिकारी किंकर्तव्यविमूढ़ होते जा रहे हैं. इसका हल अब शायद ट्रेक के ऊपर ट्रेक ही हो सकता है, जो कि पता नहीं दूर भविष्य में भी बन पाएगा या नहीं...!
अतिरिक्त ट्रेन चलाने की जगह नहीं
मुंबई : पिछले करीब एक साल से पश्चिम रेलवे सबर्बन सेक्शन की ग्रह दशा ठीक नहीं चल रही है. आये दिन कहीं ओएचई टूट जाता है तो कहीं लोकल या मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों का पेंटोग्राफ. ओएचई में उलझकर रह जाता है. तो
चलते-चलते नई लोकल गाडिय़ों की ट्रेक्शन मोटरें फेल हो जाती हैं, तो कहीं इनकी कपलिंग डिपार्ट हो जाती है. उधर वसई-विरार की यात्री संघर्ष समितियां रेल रोको की धमकियां दे-देकर रेल प्रशासन की नाक में दम किए हुए
है. इलेक्ट्रानिक मीडिया के बंदरछाप रिपोर्टर, जिन्हें रेलवे की कोई तकनीकी जानकारी नहीं होती है और न ही यह जानकारी करने या लेने अथवा समझने में उनकी कई रुचि है, प्लेटफार्मों और ट्रेकों या रेल परिसरों में अवैध रूप से कैमरा और माइक लेकर घुसकर, यात्रियों के मुंह में माइक घुसेड़ते हुए ऐसी-ऐसी बचकानी एक्सपोर्ट ओपीनियन दे रहे होते हैं कि कोई तनिक भी समझदार व्यक्ति का दिमाग भन्ना उठेगा. इस सबके साथ ही जेडआरयूसीसी और
डीआरयूसीसी के अधकचरे सदस्य भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपनी तथाकथित एक्सपर्ट सलाहें देकर सामान्य समझ रखने वाले यात्रियों को और ज्यादा भड़क रहे होते हैं. इनका कोई इलाज रेल प्रशासन के पास नहीं है.
हालांकि गत दिनों 40 लोकल ट्रेनें चलाकर पश्चिम रेलवे से एक बड़ी भूल हुई है, परंतु उसकी यह भूल यात्रियों के दबाव को देखते हुए क्षम्य भी है. तथापि यात्रियों को इससे भी कोई राहत नहीं मिल पाई है. लेकिन इन 40 अतिरिक्त फेरियों के शुरू होने के परिणामस्वरूप अब हालत यह है कि प.रे. के सबर्बन सेक्शन में एक लोकल अथवा मेल-एक्सप्रेस चलाने या निकालने के लिए स्पेस/पाथ नहीं बचा है.
इस संबंध में एक मंडल अधिकारी ने बताया कि प्रशासनिक तौर पर गत दिनों यह विचार किया गया कि शताब्दी के बेकार पड़े कोचों का इस्तेमाल करते हुए मुंबई सेंट्रल से सूरत के बीच प्रमुख स्टेशनों पर रोककर दिन भर में इसकी चार फेरियां चला दी जाएं, तो इससे अधिकांश भीड़ निकल जाएगी और लोकल के यात्रियों को भी भारी राहत मिल जाएगी. परंतु जब टाइम टेबल लेकर देखा गया तो पता चला कि मुंबई सेंट्रल से इसे निकालने के लिए एक मिनट का भी स्पेस उपलब्ध नहीं है. तब इसे बांद्रा टर्मिनस से चलाने पर विचार किया गया. मगर वहां की स्थिति यह है कि किसी तरह इस रेक को वहां से निकाले जाने का एक स्पेस मिला, मगर वापसी के लिए वह भी उपलब्ध नहीं है. अब इसके लिए बताते हैं कि वसई स्टेशन पर करीब 15 लाख रु. की लागत से पानी भरने और साइडिंग की व्यवस्था की जा रही है. यह व्यवस्था होने के बाद इस रेक को वसई से सूरत के बीच चलाया जा सकेगा.
उधर मोटरमैनों की अपनी समस्याएं हैं. सेंक्शन स्ट्रेंथ में कम मैन पावर उपलब्ध होने से उन्हें 12 से 18 घंटे ड्यूटी करनी पड़ रही है. हालांकि ओवरटाइम आज उनकी भी जरूरत है, परंतु इसे वह प्रशासन पर अहसान की तरह
लादते हैं. उनकी 'न्यूसेंस' की वजह से लगभग सभी अधिकारी उनसे खिन्न रहते हैं. अब करीब 100 नये मोटरमैनों के भर्ती हाल ही में की गई है और इन्हें चरणबद्ध तरीके से आवश्यक ट्रेनिंग दी जा रही है, जिससे अन्य रनिंग स्टाफ
के काम के घंटों में अवश्य कमी आएगी.
बोरीवली-विरार के बीच अतिरिक्त दो लाइनों का ग्राउंड वर्क तो येन-केन प्रकारेण पूरा करके लाइनें बिछा दी गई हैं, परंतु उनमें एसी ट्रेक्शन और सिग्नलों का एस एंड टी वर्क आज तक अधूरा है. जबकि बोरीवली से आगे तक के
यात्रियों को सिर्फ यह दिखाई दे रहा है कि लाइनें बिछ गई हैं तो उन पर नई और अतिरिक्त सेवाएं क्यों नहीं बढ़ाई जा रही हैं. इन्हें देखकर उनकी अपेक्षाएं बढऩा भी स्वाभाविक ही है परंतु जो काम अधूरे हैं, और उन पर गाडिय़ां क्यों नहीं चलाई जा पा रही हैं. इस बारे में उन्हें कौन अवगत कराएगा? रेल प्रशासन एवं यात्रियों के बीच यह संवादहीनता अथवा यात्रियों में जानकारी का अभाव ही शायद उनके आक्रोश का सबसे बड़ा कारण है. परंतु यात्रियों की बढ़ती संख्या पर भीड़ को देखते हुए उनकी यह अपेक्षा बढ़ाने के लिए भी कहीं न कहीं रेल प्रशासन ही जिम्मेदार है. क्योंकि वह बीच-बीच में कभी एसी लोकल तो कभी 15 डिब्बों वाली लोकल चलाने की 'पुडिय़ा छोड़कर उनकी अपेक्षाओं को हवा देता रहता है. जब एक भी नई सेवा चलाने के लिए उसके पास अब तनिक भी स्पेस उपलब्ध नहीं है, तो यह ऐसी लोल अथवा 15 कोचों वाली लोकल को रेल प्रशासन कहां घुसाएगा? यह सवाल अत्यंत स्वाभाविक है.
नई लोकल ट्रेनों से यात्रियों को भारी राहत मिली है, इसमें कोई शक नहीं है. इसके लिए एमआरवीसी और रेल प्रशासन दोनों की सूझबूझ के लिए यात्रियों ने उन्हें सराहा है. परंतु इनसे अब उन्हें शिकायतें भी होने लगी हैं. इन
शिकायतों में मुख्यत: इन कोचों की फिसलन भरी सतह और दो सीटों के बीच कम जगह का होना है. इसके अलावा फस्र्ट क्लास की इनकी सीटें भी चौड़ाई में कम है. जिससे इनमें डेढ़-दो घंटे लगातार बैठे नहीं जा सकता. हालांकि
एमआरवीसी ने इन शिकायतों को नये आने वाले रेकों में दूर कर देने का आश्वासन दिया है और इस हेतु उनकी टीम आईसीएफ का दौरा भी कर आई है परंतु शायद अब तक सेवा में आ चुके रेकों में यह शिकायतें दूर करने की कोई
गुंजाइश नहीं है.
इस बीच इन नई लोकल ट्रेनों की तमाम ट्रेक्शन मोटरें धड़ाधड़ फेल होनी शुरू हो गई. कहा गया कि निर्धारित से ज्यादा लोड वहन न कर पाने की वजह से यह मोटरें फेल हुईं. तथापि इसके कई अन्य गूढ़ एवन तकनीकी कारण हो सकते हैं. जिनके बारे में शायद सामान्य यात्री सोच भी नहीं सकेंगे. बहरहाल एमआरवीसी ने अचानक आ पड़, इस समस्या को गंभीरता से लिया और संबंधित कंपनी को सभी मोटरें रिप्लेस/रिपेयर करने में लगाया. बताते हैं कि गत तीन महीनों के दौरान ऐसी करीब 700 मोटरें संबंधित कंपनी के खर्च पर बदली या मरम्मत की गई है. इनकी कपलिंग टूटने (डिपार्ट होने) की समस्या भी गंभीर है. क्योंकि जहां प्रत्येक ढाई-तीन मिनट के अंतराल पर गाड़ी के पीछे गाड़ी और गाड़ी के ऊपर गाड़ी चलाई जा रही हो. भीड़ के समय अचानक कपलिंग टूटने या ओएचई अथवा पेंटोग्राफ फेल होने, कोई एक भी सिगनल फेल हो जाने से न सिर्फ दूर तक गाडिय़ों की लंबी कतार लग जाती है बल्कि इससे लाखों यात्रियों की नाराजगी पैदा होती, जो कि अपने ऑफिस की नाराजगी पैदा होती, जो कि अपने ऑफिस या घर समय पर नहीं पहुंच पाते हैं और तब वे अपनी या मुंबई की सबसे विश्वसनीय यातायात सेवा रेलवे (सबर्बन सर्विस, जो कि मुंबई लाइफ लाइन है, और रेल प्रशासन को ही कोसने लगते हैं.
हालांकि पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक श्री आर. एन. वर्मा और डीआरएम/मुंबई सेंट्रल श्री सी. पी. शर्मा के प्रयासों में कोई कमी नहीं है. इस बात से न सिर्फ उनके तमाम सहयोगी अधिारी और मातहत कर्मचारी वाकिफ हैं बल्कि 'रेलवे समाचार' भी इससे सहमत है. इन दोनों कर्मठ अधिकारियों की कड़ी मेहनत और काम के प्रति समर्पण तथा ईमादारी में भी कोई कमी नहीं है. दोनों ही अधिकारियों को एक साथ अक्सर किसी नी किसी उपनगरीय स्टेशन अथवा सेक्शन में ओएचई/सिगनल/इंजीनियरिंग कार्यों की समीक्षा/निरीक्षण करते देखा जा सकता है. देर रात तक अपने कार्यालयों में भी इन्हें बैठे और फाइलें निपटाते हुए देखा जाता है. मगर यात्रियों की एवरेस्ट से भी ऊंची होती जा रही आकांक्षाओं के सामने यह दोनों अधिकारी अब शायद स्वयं को ही कम पाने लगे हैं. क्योंकि वर्तमान ढांचे में अब एक भी अतिरिक्त सेवा बढ़ाने का कोई चांस उनके पास नहीं बचा होने से वह दोनों अधिकारी किंकर्तव्यविमूढ़ होते जा रहे हैं. इसका हल अब शायद ट्रेक के ऊपर ट्रेक ही हो सकता है, जो कि पता नहीं दूर भविष्य में भी बन पाएगा या नहीं...!
No comments:
Post a Comment