Saturday, 3 October 2009

रेल यात्रा में शाश्वत विचार
एक बार रेल में यात्रा करते हुए एक अजीब प्राणी से मुलाकात हुई. मैं अभी आकर अपनी सीट पर बैठा ही था कि एक सज्जन उठे और मेरा पैर छूकर क्षमा मांगने लगे. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, वह बोले- आप बेफिक्र रहें. मेरी वजह से भविष्य में भी आपको कोई परेशानी नहीं होगी. आपको जो कुछ करना
हो कर डालें.
मैं एक क्षण के लिए स्तंभित रह गया. उन्हें गौर से देखा तो वह मुझे बिल्कुल अजनबी लगे. मैंने कहा- भाई साहब, आपको शायद कोई मुगालता हुआ है. मैंने तो पहले आपको कभी देखा भी नहीं और ही ऐसी कोई बात हुई है जिसके लिए आप क्षमा मांग रहे हैं. वह बिना मुखातिब हुए झुंझला कर बोले- आप भी
भारतीय हैं और मुझे भी भारत में ही रहना है. यहां सही होते हुए भी सही बात कहना पाप है. वो- वो जो साइड वाली सीट पर पढ़े-लिखे श्रीमान जी टांग पर टांग रखे रास्ता रोके बैठे हैं, वो अपने जूते के तले का स्पर्श हर
आते-जाते को कराने में जाने क्या शान समझ रहे हैं. मैं भी तीन बार उधर से गुजरा तो इनके कीचड़ से सने जूते के स्पर्श से मेरी पैंट की काया पर इनकी सभ्यता की मुहर दर्ज हो गई.
मैंने जब इन महाशय से प्रार्थना की कि भाई साहब आप पैर नीचे कर लें तो उन्होंने फरमाया- चल, चल मुझे बैठने का ढंग सिखा रहा है. जा तुझे जो करना हो कर ले. मैं तो ऐसे ही बैठूंगा. मैंने जब तहजीब का वास्ता दिया तो ये
जनाब मुझसे मेरी हैसियत पूछने लगे. खैर, अभी इस हादसे को हुए पांच मिनट भी गुजरे थे कि रोज के काम धंधे वाले दैनिक यात्री इस आरक्षित डिब्बे में चढ़ गए और यात्रियों को धकिया-धकिया कर जहां-तहां बिना पूछे बैठने
लगे. जोर-जोर से हा-हा, ही-ही करते हुए औरों को भी बुलाकर इन्होंने मेरी ऊपर वाली बर्थ को ऐसे एलॉट कर दिया जैसे हमारा उससे कोई वास्ता ही हो.
जूता पहने-पहने 5-6 हमारे बिस्तर पर जा बैठे. उनमें से एक-दो ने जूते उतार कर पंखों पर रख दिया.
मैं नीचे वाली सीट पर खाना खा रहा था कि जूतों में लगी धूल मेरे खाने में पड़ी. मैंने ऐतराज किया तो ऊपर से आवाज आई- लगता है पहली बार ट्रेन में बैठा है. मुंहजोरी के बीच एक बोला- अगर ऐसा ही है तो भाई साहब आप हवाई जहाज से यात्रा क्यों नहीं करते. उनके इस वक्तव्य पर उनकी सारी मंडली
मेरा मजाक उड़ाने लगी.
मैं उनकी बदतमीजियां सहते-सहते तंग गया. काफी देर से खाना बाहर फेंकने की सोच रहा था. खाना फेंकते हुए मेरे मुंह से चाहते हुए भी निकल गया- ये इसी तरह इक्कीसवीं सदी में जाने कैसे पहुंच गए. तो एक आवाज आई 'पीढ़ी-दर-पीढ़ी'. इस पर सभी दांत निपोरने लगे. अब मुझसे रहा गया. मैंने कह ही डाला- 'कम से कम इस पीढ़ी तक तो आते-आते शर्म हया क्या होती है, यह सीख लेनी चाहिए थी. कॉमन एटीकेट्स तो जाने चाहिए थे. आपमें से कोई भी शायद पैंतीस चालीस से कम नहीं है और शायद अनपढ़ भी नहीं है.' मेरा यह कहना था कि एक ऊपर से कूद कर मेरे सामने खड़ा हो गया. कहने लगा- 'अबे हमें बेशर्म कह रहा है. दांत तोड़ दूंगा, एटीकेट-बेटीकेट सब भूल जाएगा।' मैंने संयत होते हुए क्षमा मांगी और कहा- 'भाई आपका कोई कसूर नहीं है, इतनी तहजीबें आई इस मुल्क में किसी से तो कुछ सीख लिया होता. लेकिन इसके बदले आपने अपनी गलत परंपराओं और आचरण को कायम रखा, वाकई आपमहान हैं.'
यह वृतांत सुनाकर उस सज्जन ने कहा- अब मैं हर किसी से माफी मांग रहा हूं. आपसे भी एडवांस में माफी मांग ली है. मैंने उस त्रस्त आत्मा से कहा- 'भाई साहब, मैं एक शाश्वत विचार दे रहा हूं. हमें ऐसे लोगों के बीच ही जीना होगा. बेहतर है, अपनी खाल मोटी कर लें.' मेरा वाक्य अभी पूरा भी हो पाया था कि डिब्बे के बीच से बेसुरी आवाजों में कनफोडिय़ा कीर्तन शुरू हो गया.

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