क्या रे.बो., लेबर फेडरेशन और एनॉमली कमेटी मिलकर
सितंबर 2010 तक 6वें वेतन आयोग की उलझी हुई
गुत्थियों को सुलझा पाएंगे?
6वें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू हुए एक साल हो गया. गत वर्ष सितबंर 2008 में आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा केंद्र सरकार ने की थी और अभी-अभी बीते सितंबर 2009 में 6वें वेतन आयोग को लागू होकर 13 महीने, यानी एक साल से ज्यादा हो चुके हैं. परंतु अब तक इसकी विसंगतियां जस की तस हैं, जबकि विसंगति समिति (एनॉमली कमेटी) को गठित हुए भी 6 महीने से ज्यादा बीत चुके हैं. अब रेलकर्मियों को यह चिंता सताने लगी है कि कहीं चौथे-पांचवे वेतन आयोग, जिनकी विसंगतियां आज तक दूर नहीं हुई हैं, जैसी ही स्थिति तो नहीं बनी रहेगी? और क्या रेलवे बोर्ड, लेबर फेडरेशन एवं एनॉमली कमेटी मिलकर भी अगले साल सितंबर 2010 तक भी 6वें वेतन आयोग की तमाम विसंगतियों को सुलझा पाएंगे?
ऐसी विषमतापूर्ण स्थितियों और उपरोक्त सितंबर 2010 की समय-सीमा के संदर्भ में रेलकर्मियों को याद होना चाहिए कि वर्ष 2004-05 में भारतीय रेल ने अपनी विभिन्न विकास योजनाओं के लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) से अरबों डॉलर का कर्ज लिया था. एडीबी का यह कर्ज भा.रे. को इस शर्त पर मिला था कि वर्ष 2010 तक उसे अपने कर्मचारियों की संख्या घटाकर 10 लाख के अंदर लानी होगी. क्योंकि भा.रे. की अधिकांश कमाई इन लाखों सरप्लस कर्मचारियों के वेतन-भत्तों पर ही स्वाहा हो जाती है. अपना मानव संसाधन घटाकर ही भा.रे. अपनी आय का ज्यादातर हिस्सा बचाकर उसका कर्ज उतारने में सक्षम हो पाएगी. एडीबी ने इस समस्त प्रक्रिया पर पैनी नजर रखने के लिए भारतीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी 'क्रिसिल' को नियुक्त किया था. अब वह समय सीमा
पूरी होने जा रही है.
इसके अलावा भी एडीबी की कई अन्य शर्तें थीं, जो कि बदनाम राकेश मोहन कमेटी की सिफारिशों से पूरी तरह मैच करती हैं. एडीबी की शर्तें और राकेश मोहन कमेटी की सिफारिशें लगभग 50 प्र.श. पीछे के दरवाजे से लागू हो चुकी
हैं. अब इस दिशा में पे रोल, पेंशन, एकाउंट्स, असेट मैनेजमेंट, मटीरियल मैनेजमेंट, ट्रेन शेड्यूलिंग एवं चार्टिंग, ट्रेन मैनेजमेंट सिस्टम, क्रू मैनेजमेंट सिस्टम आदि कार्यों को देश-विदेश की बड़ी आईटी कंपनियों को आउटसोर्सिंग के तहत दिया जा रहा है. इस लगभग 15 अरब रुपए (1.5 बिलियन डॉलर्स) के आउटसोर्सिंग कांट्रेक्ट को हासिल करने के लिए टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो, महिंद्रा एवं सत्यम जैसी बड़ी देशी आईटी कंपनियों में होड़ लगी हुई है. यह कंपनियां उपरोक्त सभी कार्यों को 'ह्यïूमन रिसोर्सेस मैनेजमेंट सिस्टम' के जरिए अगले दो-तीन वर्षों में इंटीग्रेटेड और आटोमेटेड बना देंगी. पीपीपी के तहत इस योजना पर अमल करने की तैयारी हो चुकी है. बिल्ट-ऑपरेट-ट्रांसफर (बीओटी) के आधार पर पूरी होने वाली इस योजना का सारा खर्च कांट्रेक्ट हासिल करने वाली कंपनी उठाएगी. जबकि विप्रो द्वारा 'ट्रेन मूवमेंट चार्टिंग सिस्टम' नामक दो पायलट प्रोजेक्ट तैयार किए जा चुके हैं. ऐसे प्रत्येक कार्य की लागत करीब 500 करोड़ रु. से भी ज्यादा है. ऐसे में भारी मुनाफे का सौदा
देखकर कंपनियों में होड़ नहीं हो, तो ही आश्चर्य होगा.
इस तरह की आउटसोर्सिंग कर देने से रेलवे को कई तरह की बचत या फायदे होंगे.
1. कर्मचारियों की संख्या घटी तो उनका काम निजी कंपनियों को सौंप कर वेतन-भत्तों पर खर्च होने वाली कुल कमाई की कम से कम आधी राशि बच जाएगी.
2. लाखों कर्मचारियों को काम करने के लिए ऑफिस, कुर्सी-मेज, रहने के लिए क्वार्टर्स आदि अन्य सुविधाओं की बचत उनके न रहने से हो जाएगी और यह सारी सुविधाएं निजी कंपनियों को भी नहीं देनी पड़ेंगी. क्योंकि वे अपने
संसाधनों की बदौलत रेलवे का कांट्रैक्ट वर्क संभालेंगी.
3. कर्मचारियों को हर महीने जो वेतन देना पड़ता है, रेलवे को उससे भी निजात मिल जाएगी, क्योंकि यह सिरदर्द निजी कंपनियों का होगा. जबकि कंपनियों को उनके किए कार्य का भुगतान साल या 6 महीने में एक ही बार करना
पड़ेगा, जो कि ऑटोमेटिक सिस्टम से स्वत: ही हो जाया करेगा.
4. रेलवे स्टेशनों के आसपास की और उनके अत्यंत निकट स्थित रेलवे कॉलोनियों की बेशकीमती जमीनें, जो कि हॉट या प्राइम प्रॉपर्टी बन चुकी हैं, को बिल्डरों, निजी कंपनियों को लंबी लीज पर देकर यानी एक तरह से बेचकर और अपना भारी मुनाफा छोड़कर रेलवे निजी क्षेत्र का बहुत बड़ा उपकार कर देगी.
5. रेलवे का 'सफेद हाथी' बन चुके इसके मेडिकल डिपार्टमेंट को तो लगभग पूरी तरह निजी क्षेत्र के बड़े अस्पतालों को सौंपे जाने का निर्णय हो चुका है. इससे रेलवे की इस क्षेत्र में अत्यंत कीमती जमीनें एवं अन्य परिसंपत्तियों के साथ इसके कर्मचारी भी अपनी नौकरी खो बैठेंगे.
रेल कर्मियों को 'रेलवे समाचार' के पिछले अंकों में प्रकाशित रेलवे बोर्ड की 'विशेष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना' का सर्कुलर याद होगा; जिसमें मेडिकली डिकैटेगराइज्ड और सरप्लस रेलकर्मचारियों को घर भेजे जाने के लिए
विशेष प्रावधान एवं दिशा निर्देश तय किए गए हैं. इस योजना के अंतर्गत कर्मचारी को उसकी सर्विस के प्रत्येक वर्ष के लिए 35 दिन की ग्रेज्युटी और सेवाकाल के बचे हुए वर्षों के लिए प्रतिवर्ष 25 दिन का विशेष वेतन दिया जाएगा. यह योजना 55 वर्ष से कम आयु वर्ग वाले कर्मचारियों के लिए ही है.
मान लो कोई कर्मचारी 20 साल की आयु में रेलवे की नौकरी में आया है और वर्तमान में 30 साल की सेवा के बाद उसकी आयु आज 50 साल की है और वह अब स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेना चाहता है, तो उसे 30 वर्षों की सेवा के लिए 1050 (३५*30) दिन की ग्रेज्युटी और बचे हुए 10 साल के सेवाकाल के लिए २५० (२५*10) दिन का विशेष वेतन यानी कुल मिलाकर उसे 1300 दिन की तनख्वाह दी जाएगी, जो आज के हिसाब से कुल मिलाकर करीब 10 लाख रु. होगी. इसमें भी सिर्फ 5 लाख रु. करमुक्त होंगे, बाकी पांच लाख पर कर लगेगा.
इसके अलावा 'रेलवे समाचार' ने चालू वर्ष के अपने पिछले अंकों में रेल कर्मचारियों की सेंक्शन स्ट्रेंथ में पोस्टों के मर्जर से पैदा होने वाली विसंगतियों और लेबर फेडरेशनों तथा जोनल श्रम संगठनों की कार्य प्रणाली के साथ ही कर्मचारियों के प्रमोशन पोस्टिंग एवं सेलेक्शन प्रोसेस पर पडऩे वाले तमाम दुष्प्रभावों पर विस्तार से वस्तुस्थिति का प्रस्तुतिकरण किया था. अब 6वें वेनत आयोग की सिफारिशें लागू होने के एक साल बाद भी लेबर फेडरेशन, रेलवे बोर्ड और एनॉमली कमेटी मिलकर भी इसकी तमाम विसंगतियों को ठीक नहीं कर पाए हैं. यदि ऐसा हो गया होता तो जून 2009 में यानी अभी तीन महीने पहले लागू हुई एसीपी स्कीम पहले ही लागू हो जाती, जबकि इस एसीपी स्कीम के सर्कुलर में स्पष्ट किया गया है कि इसके तहत प्रतिवर्ष जुलाई महीने से योग्य कर्मचारियों को वार्षिक वेतन वृद्धि (इंक्रीमेंट) दी जाएगी.
'रेलवे समाचार' के पिछले अंक में रेलवे बोर्ड द्वारा जारी दि. 31.8.09 तक जो पद रिक्त हैं, उन्हें भरने के लिए एक बार (वन टाइम) का विशेष प्रावधान इनके वर्गीकरण में देरी होने की संभावना के मद्देनजर श्रम संगठनों की याचना को स्वीकार करते हुए रेलवे बोर्ड ने मान लिया है. इस सर्कुलर से रेलकर्मचारियों को अपने मन में उठ रहे तमाम सवालों का उत्तर स्वयं ही मिल गया होगा. जैसे कि नॉन सेलेक्शन पोस्टों को सेलेक्शन पोस्टों के साथ मर्ज किया गया है क्योंकि उक्त सर्कुलर में जो सेलेक्शन प्रोसीजर बताया गया है, वह वास्तव में नॉन सेलेक्शन पोस्टों को भरने का प्रोसीजर है. इस तरह सेलेक्शन पोस्टों को भी नॉन सेलेक्शन पोस्टें बनाकर बड़ी चालाकी से बोर्ड
ने श्रम संगठनों को ठगा है.
हालांकि अधिकांश कर्मचारियों पर इस सर्कुलर का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा है, क्योंकि वह श्रम संगठनों और रेलवे बोर्ड की इस तरह की 'मिली-जुली कार्यप्रणाली' से अब बेहतर वाकिफ हो गये हैं, क्योंकि इससे पहले हुई रिस्ट्रक्चरिंग में भी इसी तरह सेलेक्शन प्रमोशन हो चुके हैं. परंतु इस बार विशेष रूप से उन्हें इसलिए भी कोई खास परेशानी नहीं होगी क्योंकि अब हेडक्लर्क से लेकर एडीईएन, एपीओ, एसीएम, एओएम, एईई, एएमएम और एमसीएम जेई-2 से एसएसई तक सब एक ही पे बैंड-2 (वेतनमान) 9300-34800 में होंगे. अब ऐसे में किसको क्या मिलता है, इससे किसी को क्या फर्क पड़ेगा. आखिर सब रहेंगे तो एक ही वेतनमान में न...!
रेलवे की मुख्य आय माल ढुलाई, लगेज-पार्सल ट्रांसपोर्टेशन से ही होती है, जिसमें से अधिकांश हिस्सा कांकोर और निजी ऑपरेटरों ने खींच रखा है. आज देश में कुल माल ढुलाई का मात्र 23 प्रतिशत बाजार हिस्सा ही रेलवे के पास
बचा है. जबकि वर्ष 1951-52 से 1961-62 तक रेलवे के पास यह 80 प्र.श. था. अब आगे डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) के अस्तित्व में आ जाने पर यह बचा खुचा बाजार हिस्सा भी रेलवे के हाथ से खिसक जाएगा. यात्री गाडिय़ों की लगेज वैनों का लीज के रूप में निजीकरण हो ही चुका है. उधर, कैटरिंग भी रेलवे से निकलकर आईआरसीटीसी नामक नये पीएसयू के हाथ में चली गई है. एस एंड टी 'रेलटेल' और रेलवे जमीन का सारा मामला आरएलडीए के पास, इंजी. निर्माण कार्य आरवीएनएल, एमआरवीसी आदि के पास चले गए हैं. टिकटों के वितरण का मामला भी ई-टिकटिंग और थॉमस कुक, पोस्ट ऑफिसों के जरिए स्वचालित एवं निजीकरण में चला ही गया है. स्टेशनों, प्रतीक्षालयों, विश्रामगृहों आदि की साफ-सफाई और रखरखाव का निजीकरण हो ही चुका है.
ऐसे में रेलवे के आरषण केंद्रों में अब जनरल टिकट बेचे जाएंगे. हालांकि यूटीएस के जरिए सिटी टिकट बुकिंग आफिस का कांट्रेक्ट इनका भी क्रमिक निजीकरण किया जा रहा है. हो सकता है कि आगे चलकर रेलवे अपने तमाम आरक्षण केंद्रों को ही इनकी परिसंपत्तियों एवं प्रशिक्षित मानव संसाधन के साथ समान सेवाशर्तों के तहत यदि बात बनी तो निजी कंपनियों अथवा आरटीएसए को ही सौंप दिया जाए. जैसा कि स्वतंत्र प्रभार वाले रेल राज्यमंत्री राम नाईक के कार्यकाल में चार आरटीएसए को पायलट प्रोजेक्ट के नाम पर आरक्षण टर्मिनल्स उनके निजी कार्यालयों में लगाए गए थे. यह हवाई कंपनियों के बुकिंग एजेंटों की तर्ज पर ही होने जा रहा है. ऐसे भावी आसार दिखाई दे रहे हैं.
तथापि रेल कर्मचारियों को अब भी श्रम संगठनों, रेलवे बोर्ड से यह उम्मीद बची हुई है कि वे शीघ्र ही कोई रास्ता निकालेंगे, जिससे पांचवे वेतन आयोग के एमसीएम और जेई जैसे लोगों के मामले पीले पास में ही अटक कर न रह जाएं बल्कि 6वें वेतन आयोग की सिफारिशों की तमाम विसंगतियां जल्दी खत्म करके स्टाफ कटौती की लटकती तलवार और रिक्त पड़े 1.75 लाख पदों को भरे जाने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जाएंगे.
सितंबर 2010 तक 6वें वेतन आयोग की उलझी हुई
गुत्थियों को सुलझा पाएंगे?
6वें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू हुए एक साल हो गया. गत वर्ष सितबंर 2008 में आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा केंद्र सरकार ने की थी और अभी-अभी बीते सितंबर 2009 में 6वें वेतन आयोग को लागू होकर 13 महीने, यानी एक साल से ज्यादा हो चुके हैं. परंतु अब तक इसकी विसंगतियां जस की तस हैं, जबकि विसंगति समिति (एनॉमली कमेटी) को गठित हुए भी 6 महीने से ज्यादा बीत चुके हैं. अब रेलकर्मियों को यह चिंता सताने लगी है कि कहीं चौथे-पांचवे वेतन आयोग, जिनकी विसंगतियां आज तक दूर नहीं हुई हैं, जैसी ही स्थिति तो नहीं बनी रहेगी? और क्या रेलवे बोर्ड, लेबर फेडरेशन एवं एनॉमली कमेटी मिलकर भी अगले साल सितंबर 2010 तक भी 6वें वेतन आयोग की तमाम विसंगतियों को सुलझा पाएंगे?
ऐसी विषमतापूर्ण स्थितियों और उपरोक्त सितंबर 2010 की समय-सीमा के संदर्भ में रेलकर्मियों को याद होना चाहिए कि वर्ष 2004-05 में भारतीय रेल ने अपनी विभिन्न विकास योजनाओं के लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) से अरबों डॉलर का कर्ज लिया था. एडीबी का यह कर्ज भा.रे. को इस शर्त पर मिला था कि वर्ष 2010 तक उसे अपने कर्मचारियों की संख्या घटाकर 10 लाख के अंदर लानी होगी. क्योंकि भा.रे. की अधिकांश कमाई इन लाखों सरप्लस कर्मचारियों के वेतन-भत्तों पर ही स्वाहा हो जाती है. अपना मानव संसाधन घटाकर ही भा.रे. अपनी आय का ज्यादातर हिस्सा बचाकर उसका कर्ज उतारने में सक्षम हो पाएगी. एडीबी ने इस समस्त प्रक्रिया पर पैनी नजर रखने के लिए भारतीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी 'क्रिसिल' को नियुक्त किया था. अब वह समय सीमा
पूरी होने जा रही है.
इसके अलावा भी एडीबी की कई अन्य शर्तें थीं, जो कि बदनाम राकेश मोहन कमेटी की सिफारिशों से पूरी तरह मैच करती हैं. एडीबी की शर्तें और राकेश मोहन कमेटी की सिफारिशें लगभग 50 प्र.श. पीछे के दरवाजे से लागू हो चुकी
हैं. अब इस दिशा में पे रोल, पेंशन, एकाउंट्स, असेट मैनेजमेंट, मटीरियल मैनेजमेंट, ट्रेन शेड्यूलिंग एवं चार्टिंग, ट्रेन मैनेजमेंट सिस्टम, क्रू मैनेजमेंट सिस्टम आदि कार्यों को देश-विदेश की बड़ी आईटी कंपनियों को आउटसोर्सिंग के तहत दिया जा रहा है. इस लगभग 15 अरब रुपए (1.5 बिलियन डॉलर्स) के आउटसोर्सिंग कांट्रेक्ट को हासिल करने के लिए टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो, महिंद्रा एवं सत्यम जैसी बड़ी देशी आईटी कंपनियों में होड़ लगी हुई है. यह कंपनियां उपरोक्त सभी कार्यों को 'ह्यïूमन रिसोर्सेस मैनेजमेंट सिस्टम' के जरिए अगले दो-तीन वर्षों में इंटीग्रेटेड और आटोमेटेड बना देंगी. पीपीपी के तहत इस योजना पर अमल करने की तैयारी हो चुकी है. बिल्ट-ऑपरेट-ट्रांसफर (बीओटी) के आधार पर पूरी होने वाली इस योजना का सारा खर्च कांट्रेक्ट हासिल करने वाली कंपनी उठाएगी. जबकि विप्रो द्वारा 'ट्रेन मूवमेंट चार्टिंग सिस्टम' नामक दो पायलट प्रोजेक्ट तैयार किए जा चुके हैं. ऐसे प्रत्येक कार्य की लागत करीब 500 करोड़ रु. से भी ज्यादा है. ऐसे में भारी मुनाफे का सौदा
देखकर कंपनियों में होड़ नहीं हो, तो ही आश्चर्य होगा.
इस तरह की आउटसोर्सिंग कर देने से रेलवे को कई तरह की बचत या फायदे होंगे.
1. कर्मचारियों की संख्या घटी तो उनका काम निजी कंपनियों को सौंप कर वेतन-भत्तों पर खर्च होने वाली कुल कमाई की कम से कम आधी राशि बच जाएगी.
2. लाखों कर्मचारियों को काम करने के लिए ऑफिस, कुर्सी-मेज, रहने के लिए क्वार्टर्स आदि अन्य सुविधाओं की बचत उनके न रहने से हो जाएगी और यह सारी सुविधाएं निजी कंपनियों को भी नहीं देनी पड़ेंगी. क्योंकि वे अपने
संसाधनों की बदौलत रेलवे का कांट्रैक्ट वर्क संभालेंगी.
3. कर्मचारियों को हर महीने जो वेतन देना पड़ता है, रेलवे को उससे भी निजात मिल जाएगी, क्योंकि यह सिरदर्द निजी कंपनियों का होगा. जबकि कंपनियों को उनके किए कार्य का भुगतान साल या 6 महीने में एक ही बार करना
पड़ेगा, जो कि ऑटोमेटिक सिस्टम से स्वत: ही हो जाया करेगा.
4. रेलवे स्टेशनों के आसपास की और उनके अत्यंत निकट स्थित रेलवे कॉलोनियों की बेशकीमती जमीनें, जो कि हॉट या प्राइम प्रॉपर्टी बन चुकी हैं, को बिल्डरों, निजी कंपनियों को लंबी लीज पर देकर यानी एक तरह से बेचकर और अपना भारी मुनाफा छोड़कर रेलवे निजी क्षेत्र का बहुत बड़ा उपकार कर देगी.
5. रेलवे का 'सफेद हाथी' बन चुके इसके मेडिकल डिपार्टमेंट को तो लगभग पूरी तरह निजी क्षेत्र के बड़े अस्पतालों को सौंपे जाने का निर्णय हो चुका है. इससे रेलवे की इस क्षेत्र में अत्यंत कीमती जमीनें एवं अन्य परिसंपत्तियों के साथ इसके कर्मचारी भी अपनी नौकरी खो बैठेंगे.
रेल कर्मियों को 'रेलवे समाचार' के पिछले अंकों में प्रकाशित रेलवे बोर्ड की 'विशेष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना' का सर्कुलर याद होगा; जिसमें मेडिकली डिकैटेगराइज्ड और सरप्लस रेलकर्मचारियों को घर भेजे जाने के लिए
विशेष प्रावधान एवं दिशा निर्देश तय किए गए हैं. इस योजना के अंतर्गत कर्मचारी को उसकी सर्विस के प्रत्येक वर्ष के लिए 35 दिन की ग्रेज्युटी और सेवाकाल के बचे हुए वर्षों के लिए प्रतिवर्ष 25 दिन का विशेष वेतन दिया जाएगा. यह योजना 55 वर्ष से कम आयु वर्ग वाले कर्मचारियों के लिए ही है.
मान लो कोई कर्मचारी 20 साल की आयु में रेलवे की नौकरी में आया है और वर्तमान में 30 साल की सेवा के बाद उसकी आयु आज 50 साल की है और वह अब स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेना चाहता है, तो उसे 30 वर्षों की सेवा के लिए 1050 (३५*30) दिन की ग्रेज्युटी और बचे हुए 10 साल के सेवाकाल के लिए २५० (२५*10) दिन का विशेष वेतन यानी कुल मिलाकर उसे 1300 दिन की तनख्वाह दी जाएगी, जो आज के हिसाब से कुल मिलाकर करीब 10 लाख रु. होगी. इसमें भी सिर्फ 5 लाख रु. करमुक्त होंगे, बाकी पांच लाख पर कर लगेगा.
इसके अलावा 'रेलवे समाचार' ने चालू वर्ष के अपने पिछले अंकों में रेल कर्मचारियों की सेंक्शन स्ट्रेंथ में पोस्टों के मर्जर से पैदा होने वाली विसंगतियों और लेबर फेडरेशनों तथा जोनल श्रम संगठनों की कार्य प्रणाली के साथ ही कर्मचारियों के प्रमोशन पोस्टिंग एवं सेलेक्शन प्रोसेस पर पडऩे वाले तमाम दुष्प्रभावों पर विस्तार से वस्तुस्थिति का प्रस्तुतिकरण किया था. अब 6वें वेनत आयोग की सिफारिशें लागू होने के एक साल बाद भी लेबर फेडरेशन, रेलवे बोर्ड और एनॉमली कमेटी मिलकर भी इसकी तमाम विसंगतियों को ठीक नहीं कर पाए हैं. यदि ऐसा हो गया होता तो जून 2009 में यानी अभी तीन महीने पहले लागू हुई एसीपी स्कीम पहले ही लागू हो जाती, जबकि इस एसीपी स्कीम के सर्कुलर में स्पष्ट किया गया है कि इसके तहत प्रतिवर्ष जुलाई महीने से योग्य कर्मचारियों को वार्षिक वेतन वृद्धि (इंक्रीमेंट) दी जाएगी.
'रेलवे समाचार' के पिछले अंक में रेलवे बोर्ड द्वारा जारी दि. 31.8.09 तक जो पद रिक्त हैं, उन्हें भरने के लिए एक बार (वन टाइम) का विशेष प्रावधान इनके वर्गीकरण में देरी होने की संभावना के मद्देनजर श्रम संगठनों की याचना को स्वीकार करते हुए रेलवे बोर्ड ने मान लिया है. इस सर्कुलर से रेलकर्मचारियों को अपने मन में उठ रहे तमाम सवालों का उत्तर स्वयं ही मिल गया होगा. जैसे कि नॉन सेलेक्शन पोस्टों को सेलेक्शन पोस्टों के साथ मर्ज किया गया है क्योंकि उक्त सर्कुलर में जो सेलेक्शन प्रोसीजर बताया गया है, वह वास्तव में नॉन सेलेक्शन पोस्टों को भरने का प्रोसीजर है. इस तरह सेलेक्शन पोस्टों को भी नॉन सेलेक्शन पोस्टें बनाकर बड़ी चालाकी से बोर्ड
ने श्रम संगठनों को ठगा है.
हालांकि अधिकांश कर्मचारियों पर इस सर्कुलर का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा है, क्योंकि वह श्रम संगठनों और रेलवे बोर्ड की इस तरह की 'मिली-जुली कार्यप्रणाली' से अब बेहतर वाकिफ हो गये हैं, क्योंकि इससे पहले हुई रिस्ट्रक्चरिंग में भी इसी तरह सेलेक्शन प्रमोशन हो चुके हैं. परंतु इस बार विशेष रूप से उन्हें इसलिए भी कोई खास परेशानी नहीं होगी क्योंकि अब हेडक्लर्क से लेकर एडीईएन, एपीओ, एसीएम, एओएम, एईई, एएमएम और एमसीएम जेई-2 से एसएसई तक सब एक ही पे बैंड-2 (वेतनमान) 9300-34800 में होंगे. अब ऐसे में किसको क्या मिलता है, इससे किसी को क्या फर्क पड़ेगा. आखिर सब रहेंगे तो एक ही वेतनमान में न...!
रेलवे की मुख्य आय माल ढुलाई, लगेज-पार्सल ट्रांसपोर्टेशन से ही होती है, जिसमें से अधिकांश हिस्सा कांकोर और निजी ऑपरेटरों ने खींच रखा है. आज देश में कुल माल ढुलाई का मात्र 23 प्रतिशत बाजार हिस्सा ही रेलवे के पास
बचा है. जबकि वर्ष 1951-52 से 1961-62 तक रेलवे के पास यह 80 प्र.श. था. अब आगे डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) के अस्तित्व में आ जाने पर यह बचा खुचा बाजार हिस्सा भी रेलवे के हाथ से खिसक जाएगा. यात्री गाडिय़ों की लगेज वैनों का लीज के रूप में निजीकरण हो ही चुका है. उधर, कैटरिंग भी रेलवे से निकलकर आईआरसीटीसी नामक नये पीएसयू के हाथ में चली गई है. एस एंड टी 'रेलटेल' और रेलवे जमीन का सारा मामला आरएलडीए के पास, इंजी. निर्माण कार्य आरवीएनएल, एमआरवीसी आदि के पास चले गए हैं. टिकटों के वितरण का मामला भी ई-टिकटिंग और थॉमस कुक, पोस्ट ऑफिसों के जरिए स्वचालित एवं निजीकरण में चला ही गया है. स्टेशनों, प्रतीक्षालयों, विश्रामगृहों आदि की साफ-सफाई और रखरखाव का निजीकरण हो ही चुका है.
ऐसे में रेलवे के आरषण केंद्रों में अब जनरल टिकट बेचे जाएंगे. हालांकि यूटीएस के जरिए सिटी टिकट बुकिंग आफिस का कांट्रेक्ट इनका भी क्रमिक निजीकरण किया जा रहा है. हो सकता है कि आगे चलकर रेलवे अपने तमाम आरक्षण केंद्रों को ही इनकी परिसंपत्तियों एवं प्रशिक्षित मानव संसाधन के साथ समान सेवाशर्तों के तहत यदि बात बनी तो निजी कंपनियों अथवा आरटीएसए को ही सौंप दिया जाए. जैसा कि स्वतंत्र प्रभार वाले रेल राज्यमंत्री राम नाईक के कार्यकाल में चार आरटीएसए को पायलट प्रोजेक्ट के नाम पर आरक्षण टर्मिनल्स उनके निजी कार्यालयों में लगाए गए थे. यह हवाई कंपनियों के बुकिंग एजेंटों की तर्ज पर ही होने जा रहा है. ऐसे भावी आसार दिखाई दे रहे हैं.
तथापि रेल कर्मचारियों को अब भी श्रम संगठनों, रेलवे बोर्ड से यह उम्मीद बची हुई है कि वे शीघ्र ही कोई रास्ता निकालेंगे, जिससे पांचवे वेतन आयोग के एमसीएम और जेई जैसे लोगों के मामले पीले पास में ही अटक कर न रह जाएं बल्कि 6वें वेतन आयोग की सिफारिशों की तमाम विसंगतियां जल्दी खत्म करके स्टाफ कटौती की लटकती तलवार और रिक्त पड़े 1.75 लाख पदों को भरे जाने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जाएंगे.
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