Tuesday, 21 July 2009

भावी प्रगति और लोकप्रियता की मजबूरी

रेलमंत्री ममता बनर्जी द्वारा कई लोकप्रिय कदमों की घोषणा और वित्तीय स्तर पर प्रभावित भारतीय रेलों के कामकाज के दबाव में चालू वित्त वर्ष के दौरान किए जाने वाले निवेश पर भा.रे. की भावी प्रगति और क्रियाशीलता तय होने वाली है. यह बात निर्धारित आयुसीमा पार कर चुकी रेल संपत्तियों के बदलाव के लिए आवंटित राशि को देखने मात्र से समझ में जाती है. ऐसी संपत्तियों (असेट्स) के रिप्लेसमेंट हेतु चालू वर्ष 2009-10 के लिए डेप्रिसेशन रिजर्व फंड को 1675 करोड़ से बढ़ाकर 5325 करोड़ रु. किया गया जबकि यह पिछले वित्तीय वर्ष 2008-09 में 7000 करोड़ रु. का था. इसके अलावा कैपिटल फंड, जो कि भा. रे. के रिजर्व को बढ़ाता है, को भी चालू वित्त वर्ष के दौरान कुल 4322 करोड़ रु. से घटाकर मात्र 642 करोड़ रु. कर दिया गया है जबकि गत वित्त वर्ष 2008-09 में यह 4965 करोड़ रु. था

तथापि केंद्र सरकार को दिए जाने वाले लाभांश को 768 करोड़ रु. से बढ़ाकर ५४७९ करोड़ रु. कर दिया गया है, जबकि 6वें वेतन आयोग को लागू किए जाने से भा.रे. भारी वित्तीय दबाव में है और दूसरी तरफ कैश sarplas sarplas में भी 3000 करोड़ रु. की कमी आई है. रेलवे के कैश सरह्रश्वलस में पिछले वर्ष 2008-09 के 17400 करोड़ रु. की अपेक्षा चालू वर्ष 2009-10 में घटकर १४२०१ करोड़ रु. होने का अनुमान लगाया गया है

इसके अलावा रेलवे का निवेश योग्य सरह्रश्वलस पिछले वर्ष 2008-09 के 13532 करोड़ रु. की अपेक्षा चालू वर्ष 2009-10 में ३६ प्रतिशत गिरकर 8631 करोड़ रु. रह जाने की संभावना है.

सच्चाई यह है कि पिछले दो वर्षों में रेलवे की वित्तीय स्थिति काफी तेजी से खराब हुई है. मगर देश के सामने पूर्व रेलमंत्री द्वारा लोक लुभावन और बनावटी आंकड़े पेश करते हुए लगातार वाहवाही लूटी जाती रही तथा स्वयं का विश्व के सामने मैनेजमेंट गुरु (?) और भा. रे. के टर्नएराउंड के अविष्कर्ता के रुप में प्रस्तुत किया जाता रहा. वर्ष 2007-08 में जहां भा. रे. की परिचालन लागत (ऑपरेटिंग रेशियो) इसकी कुल रेवेन्यू अर्निंग्स की 75.9 प्रतिशत
थी, वहीं वर्ष 2009-10 में यह ९२. प्रतिशत रहने वाली है. हालांकि पिछले वर्ष इसके तथाकथित मैनेजमेंट गुरु और टर्नएराउंड आविष्कर्ता ने यह आंकड़ा फर्जी तौर पर ७८ प्रतिशत बताकर देश को दिग्भ्रमित किया था जबकि गत वर्ष 2008-09 के लिए अब यह 88.3 प्रतिशत रहा बताया जा रहा है. हालांकि भा.रे. की इस खराब हालत के लिए 6 वें वेतन आयोग के लागू होने के कारण इसके बढ़े हुए वेतन बोझ को बताया जा रहा है.

रेलमंत्री ममता बनर्जी के अनुसार 6 वें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए वर्ष 2008-09 में रेलवे को अपने कर्मचारियों के वेतन मद में 13600 करोड़ रु. खर्च करने पड़े थे जबकि वर्ष 2009-10 में १४६०० करोड़ रु. अभी उनके बचे हुए 60 प्रतिशत एरियर्स आदि को देने में खर्च होने वाले हैं. हालांकि 15800 करोड़ रु. के बढ़े हुए
बजटरी सहयोग के कारण रेलवे ने अपने योजना खर्च में 10 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए 40,745 करोड़ रु. से चालू वि वर्ष में नई लाइनों और गेज कन्वर्जन की महती योजना बनाई है. ममता बनर्जी ने बताया कि जब उन्हें ज्ञात हुआ कि 11वीं पंचवार्षीय योजना में प्रावधान के मुताबिक भा.रे. को कम बजटरी सहयोग मिला है, तो उन्होंने इस मामले को प्रधानमंत्री के स्तर पर उठाया जिन्होंने तुरंत अंतरिम रेल बजट में प्रस्तावित बजटरी सहयोग से 5000 करोड़ रु. अतिरिक्त दिए जाने की मंजूरी प्रदान कर दी.

खानपान आउटसोर्सिंग समाप्त करना-कभी लागू नहीं होगा

रेलमंत्री ममता बनर्जी ने रेलवे खानपान सेवाओं, खास तौर पर पैंट्री कारों, की आउटसोर्सिंग समाप्त करने की घोषणा की है, और कहा है कि पैंट्री कारों को निकालकर उनकी जगह गाडिय़ों में एक यात्री कोच लगाया जायेगा जिससे काफी संया में यात्रियों को कन्फर्म बर्थ मिल सकेगी. ममता का विचार तो बहुत अच्छा है और इससे
निश्चित तौर पर कुछ हजार यात्रियों को राहत मिल सकती है. परंतु उन्हें यह कौन बतायेगा कि सिर के बाल मुंड़ा देने भर से मुर्दा हल्का नहीं हो जाता. जहां भा.रे. में प्रतिदिन यात्रा करने वाले करीब 1.80 करोड़ यात्रियों को आज भी पर्याप्त रुप से स्वच्छ और सुरक्षित भोजन-पानी उपलb नहीं हो पा रहा है, वहां गाडियों से 100-200 पैंट्री कारें निकाल दिए जाने से या यात्रियों की मुसीबत और नहीं बढ़ जायेगी? इसके अलावा जो सैंकड़ों करोड़ रुपया लाइसेंस फीस के रुप में निजी खानपान ठेकेदारों द्वारा भा.रे. को आज मिल रहा है, उसकी भरपाई कहां से की जायेगी?

'रेलवे समाचार' का मानना है कि भविष्य में होने वाली प्रगति और कई लोक- लुभावन घोषणाएं करके आम जनता को दिग्भ्रमित करना और इस तरह लोकप्रियता हासिल करने की pravritti से मंत्रियों को बाज आना चाहिए, योंकि यदि इस तरह की लोकप्रियता से दीर्घाविध राजनीतिक लाभ मिलता तो इसी तरह विश्व स्तरीय लोकप्रियता हासिल करके भा.रे. के टर्नएराउंड का ढिंढोरा पीटकर तथाकथित मैनेजमेंट गुरू बनने वाले पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव का उनके गृह प्रदेश बिहार में पिछले लोकसभा चुनावों में सूपड़ा साफ नहीं होता और उनकी जोकर छाप नौटंकी बंद नहीं होती. ममता बनर्जी यदि रेलवे खानपान सेवा सुधारने के लिए कड़े कदम उठाने की बात करतीं तो शायद इसका एक सही संदेश जाता, मगर आउटसोर्सिंग का कोई विकल्प तय किए बिना इसे समाप्त किए जाने की उनकी घोषणा सिर्फ हास्यास्पद साबित होगी, बल्कि इसे वास्तविक धरातल में वह अपने पांच साल के कार्यकाल, यदि पूरा किया तो, में भी नहीं उतार पायेंगी. यह तय है. जबकि इस darmyaaan दरयान वर्ष 2011 के मध्य में होने वाले . बंगाल के विधानसभा चुनाव जीतकर वह वहां की mukhyamantri मुयमंत्री बनने की तैयारी कर रही हैं.

रेल खानपान व्यवस्था की आउटसोर्सिंग समाप्त करने का मतलब होगा आईआरसीटीसी को समाप्त करना, जिसकी स्थापना ही इसीलिए की गई थी. इससे बेहतर यह होगा कि आईआरसीटीसी में गये रेलवे अधिकारियों की नकेल कसी जाये और वहां कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार अधिकारियों को नियुक्त किया जाये. जबकि अब तक स्थिति यह रही है कि यहां एकाध को छोड़कर अधिकांश अधिकारी भ्रष्ट और बेहद बेईमान किस्म के रहे हैं, या हैं. ऐसा होने के कारण ही इस क्षेत्र में स्थिति ज्यो कि त्यों है. बल्कि यह कहा जाये कि इन कुछ बेईमान अधिकारियों के कारण ही रेलवे की खानपान व्यवस्था की स्थिति और भी बद से बदतर हुई है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

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