Wednesday 20 May, 2009

विभागवार 'एजेंट' व्यवस्था
नियमानुसार किसी भी केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को अपने निजी स्टाफ में किन्हीं चार लोगों को नियुक्त करने/लेने का अधिकार होता है. इन चार लोगों में दो लोग कैडर यानी यूरोक्रेसी से होते हैं. और अन्य दो लोग मंत्री के कोई भी लगुवे-भगुवे यानी उसके कथित राजनीतिक कार्यकर्ता हो सकते हैं. अन्य मंत्रालयों में क्या होता है, इसकी तो पुkhता जानकारी नहीं है, मगर रेल मंत्रालय में रेलमंत्री को इस मामले में असीमित मानव संसाधन उपल कराने में रेलवे बोर्ड का कोई सानी नहीं है. रेलवे बोर्ड ने घोषित तौर पर लालू यादव को कुल 14 लोग उपलध कराए थे, इसमें ईडीपीजी/पीएस/एमआर आर. के. महाजन और एपीएस आर. बी. शर्मा कैडर से थे, तो स्पेशल आफीसर/एमआर भोला यादव और एपीएस विनोद कुमार श्रीवास्तव उनके राजनीतिक कार्यकर्ता थे, जो कि वास्तव में लालू यादव के घर पर क्रमश: बाजार से सजी और किराना सामान लाने से लेकर खाना बनाने और झाड़ू-पोंछा लगाने तक का काम करते रहे हैं. उपरोक्त चारों के अलावा ओएसडी/एमआर सुधीर कुमार, जो कि पहले ही ऊर्जा मंत्रालय में वापस चले गए हैं, जेडीपीजी/एमआर के.पी. यादव, जो समय रहते ही जुगाड़ लगाकर रे.बो. विजिलेंस में सुरक्षित दड़बा तलाश लिए हैं, मीडिया कंसल्टेंट (मडिया सलाहकार या दलाल?) एस. एम. तहसीन मुनव्वर, पीपीएस/ईडीपीजी/ एमआर पी. के. वैद, पीएस/ओएसडी/एमआर दलीप सिंह, फस्र्ट पीए/एमआर एस.एम. मस्तान, पीएस/ईडीपीजी/एमआर राजकुमार, एसओ/ एमआर सेल राजेंद्र शर्मा, एसओ/एमआर सेल बी.पी. अंथवाल और एसओ/ओएसडी/एमआर के. सी. एन. मेनन, ये सभी लोग रेलवे की वर्कचार्ज पोस्टों पर विराजमान होकर मंत्री के लिए विभागवार वसूली के प्रमुख कार्य में तैनात थे. यह हम नहीं कह रहे हैं, यह तो अब रे.बो. के ही कई अधिकारी खुलेआम स्वीकार कर रहे हैं. इन अधिकारियों का कहना है कि उपरोक्त के अलावा भी ए. के. चंद्रा जैसे कई अन्य अघोषित लोग प्रमुख रूप से रेलमंत्रालय एवं मंत्री के पटना स्थित कैंप कार्यालय में मंत्री की दलाली के लिए तैनात थे. अधिकारियों ने बताया कि मंत्री के निजी स्टाफ में शामिल लोगों को विभाग बांट दिए जाते हैं, संबंधित विभागों के कांट्रेkटरों/सह्रश्वलायरों को अपनी फाइलें निपटवाने या काम करवाने के लिए पहले उनसे 'मिलना' पड़ता था. जब उनका 'सौदा' पूरा हो जाता था तब उनकी तरफ से विभागीय डीलिंग अधिकारी को उसकी फाइल निपटाने या उसका काम कर देने का 'सिगनल' दे दिया जाता था. अधिकारियों का कहना था कि जब तब जनसूचना अधिकार अधिनियम (आरटीआई) अस्तित्व में नहीं था, तब तक इन कांट्रेkटरों/सह्रश्वलायरों की फाइलें विभागीय बंटवारे के हिसाब से मंत्री के निजी स्टाफ में शामिल इनके 'एजेंटों' के माध्यम से ही मंत्री तक पहुंचती थीं. परंतु आरटीआई कानून आने के बाद से 'एजेंटों' का काम सिर्फ विभागवार कांट्रेkटरों/ sapलायरों से 'डीलिंग' करना ही रह गया. उनकी 'डीलिंग' के बाद उनसे मिले ग्रीन सिगनल के पश्चात मंत्री तक फाइलें ले जा कर उन्हें kलीयर करवाने का काम संबंधित विभागीय अधिकारियों पर डाल दिया गया. जिससे कि बाद में यदि कोई मुश्किल आये तो वही भुगतें. अब शायद यही होगा, क्योंकि मंत्री के इशारे अथवा जबानी आदेशों पर पिछले पांच वर्षों में जो तमाम उल्टे-सीधे काम और भुगतान हुए हैं, उनकी फाइलें खुलेंगी और संबंधित अधिकारी ही विजिलेंस अथवा सीबीआई के शिकंजे में फसेंगे. खासतौर पर पू.म.रे. के ऐसे कई मामले 'रेलवे समाचार' के संज्ञान में आये हैं, जहां कांट्रेटरों को बिना काम किए ही मंत्री के इशारे पर न सिर्फ उन्हें करोड़ों का एडवांस भुगतान कराया गया बल्कि कई माफिया कांटरेkटरों को टेंडर एलॉटमेंट के बाद बिना काम पूरा किए ही उनकी करोड़ों की बैंक गारंटी रिलीज करा दी गई है.
यहां यह भी सही है कि मंत्री के इशारे पर उल्टे-सीधे निर्णय लेने वाले पू.म.रे. के कुछ अधिकारी भी इस आड़ में बहती गंगा में खूब हाथ धोये हैं. ज्ञातव्य है कि इन विभागीय 'डीलिंग्स' में कांट्रेkटरों/सह्रश्वलायरों की रुकी हुई फाइलें kलीयर करवाना, टेंडरों में फेवर कराना, उनके रुके हुए भुगतान करवाना, कांट्रेkटरों के फेवर में आर्बिट्रेशन के मामले फाइनल करवाना, बिना काम के एडवांस भुगतान दिलवाना, बैंक गारंटी रिलीज करवाना, फ्रेट लोडिंग रेक बारी से पहले दिलवाना, लोडिंग कंपनियों के फेवर में रियायतें घोषित कराना और जिन्सों की कैटेगरी बदलवाना, आरआरबी और जीएस कोटे में भर्ती करवाना, विभागीय ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रमोशन करवाने सहित एमआर सेल के माध्यम से सभी जोनल रेलों में इमर्जेंसी (वीआईपी) कोटे की बिक्री, मीडिया को मैनेज करना, जो कि लालू ने शुरू किया, आदि तमाम महत्वपूर्ण कार्य मंत्री के निजी स्टाफ में शामिल लोगों (एजेंटों) के हवाले होते हैं. इसके अलावा लगभग प्रत्येक जीएम, डीआरएम और पीएचओडी तक मंत्री के नाम पर वसूली करने या उनसे अपने काम करवाने के लिए तमाम 'एजेंट' घूम रहे थे, जो कई कर्मचारियों का तो पैसा भी हजम कर गए. मगर उनका काम नहीं करवाये. लालू राज में मंत्री की चापलूसी को भी खूब बढ़ावा मिला. यहां तक कि एमआर सेल के माध्यम से जीएम कोटे में भर्ती होकर आया नया-नया रंगरूट भी अपने डिपो सुपरवाइजर को लालू के नाम की धौंस दे रहा था. अब अगर 'क्षणिक बुद्धि' ममता बनर्जी रेल मंत्री बनती हैं तो शायद इस चापलूसी और भ्रष्टाचार पर थोड़ा-बहुत अंकुश लग सकेगा.
अब रे.बो. के कुछ अधिकारी आपस में यह भी कानाफूसी कर रहे हैं कि पिछले पांच वर्षों के दौरान लालू ने जो तीन-चार विदेशी दौरे किए थे, उन दौरों का असली मकसद तो वास्तव में अवैध कमाई को बाहर जमा करना था. इस कानाफूसी में यह भी सुनने को मिला कि लालू ने जितना फायदा भा.रे. को करने का ढिंढोरा पीटा, वास्तव में उससे ज्यादा तो उन्होंने और उनके कुनबे ने खुद की कमाई की थी. यदि अधिकारियों की इस कानाफूसी में थोड़ी भी सच्चाई है तो भावी रेलमंत्री को इसकी तरफ ध्यान देना चाहिए.

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