अनपेक्षित
15वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम न सिर्फ अनपेक्षित आये हैं बल्कि अप्रत्याशित भी हैं। तमाम चुनाव विश्लेषकों ने चुनाव परिणाम आने तक इसकी कल्पना भी नहीं की थी. कांग्रेस को अकेले ही 200 से ज्यादा सीटें मिलने और उसके साथ अंत तक बने रहने वाले दलों (यूपीए) को 260 से अधिक सीटें मिल जाने से उन तमाम राजनीतिक ब्लैकमेलरों की बोलती बंद हो गयी है जो चुनाव पूर्व तक कांग्रेस की अगुवाई में केंद्र सरकार को समर्थन देते हुए देश को चूस रहे थे. लालू-पासवान-मुलायम की तिकड़ी ने चुनाव पूर्व कांग्रेस की सार्वजनिक बेईज्जती करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. परंतु चुनाव परिणामों का शुरुआती रुझान आते ही इनकी बोलती बंद हो गई और इनके स्वर बदल गये. नौटंकीबाज और गैरभरोसेमंद राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने तो चुनाव परिणामों का रुझान देखते ही तुरंत बड़ी बेशर्मी के साथ अपनी गलती कबूल कर ली और कह दिया कि कांग्रेस के साथ बिहार में सीटों का तालमेल न करना उनकी बड़ी भूल थी. दरअसल लालू को उमीद थी कि वे और अवसरवादी रामविलास पासवान मिलकर बिहार को फतह कर लेंगे. इसीलिए उन्होंने बिना कांग्रेस को बताये बिहार में उसके लिए मात्र तीन सीटें छोड़कर राजनीतिक दगाबाजी की पराकाष्ठा की थी. जिसकी चहुं ओर निंदा हुई. मगर बिहार में ही जहां रामविलास पासवान खुद की सीट नहीं बचा पाये और उनकी पार्टी एलजेपी का सूपड़ा साफ हो गया, वहीं लालू अपने सहित सिर्फ 4 सीटों तक सिमटकर रह गये. यही दगाबाजी उ. प्र. में कांग्रेस के साथ मुलायम सिंह यादव ने भी की, जिसके परिणाम सामने हैं. कांग्रेस ने जहां बिहार में अपने बल पर दो सीटें जीती वहीं उ. प्र. में 22 सीटें जीतने में कामयाब रही. बिहार-उ.प्र. में कांग्रेस का अकेले चुनाव लडऩे का फैसला एकदम सही साबित हुआ. इससे लालू-मुलायम पासवान का राजनीतिक घमंड चकनाचूर हुआ है.
अब स्थिति यह है कि यह तीनों ही कांग्रेस को बिना शर्त समर्थन देने की गुहार लगाकर अपनी राजनीतिक लाज बचाना चाह रहे हैं. मगर यदि कांग्रेस ने इन्हें फिर से आश्रय दे दिया और केंद्रीय मंत्रिमंडल में ले लिया तो यह कांग्रेस के लिए आगे घातक साबित हो सकता है. अब कांग्रेस को वास्तव में इन तीनों की जरूरत नहीं है. उसे मात्र 10-12 सीटों का समर्थन चाहिए जो कि निर्दलीय ही दे देंगे. जबकि कांग्रेस यदि लालू-मुलायम को दूर रखती है तो दलबदल कानून की लाज रखते हुए लालू के कम से कम दो सांसद और मुलायम के आधे सांसद उन्हें छोड़कर कांग्रेस में जा सकते हैं. क्योंकि कांग्रेस से बिहार में गठजोड़ न करके और भयानक दगाबाजी करने के लिए उमाशंकर सिंह एवं रघुवंश प्रसाद सिंह ने लालू से अपनी नाराजगी जाहीर की थी. शायद इसी आशंका को भांपते हुए लालू ने न सिर्फ तुरंत अपनी गलती मान ली बल्कि इस गलती के लिए कांग्रेस से माफी मांगने और बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा करने में भी देरी नहीं की है. इसी आशंका के मद्देनजर यही काम मुलायम-अमरसिंह ने भी किया है.
उधर, करीब साढ़े चार साल तक कांग्रेस और केंद्र सरकार को कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के समझौते के बावजूद ब्लैकमेल करने और न्यूkलीयर डील पर सरकार से समर्थन वापस ले लेने वाले वामपंथियों को भी न सिर्फ अपनी हैसियत का पता चल गया है बल्कि जनता ने उनके गढ़ों में ही उन्हें विकास विरोधी और समय के साथ न चलने की सजा दे दी है. केरल और पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की जो गति हुई है उससे उनकी बोलती बंद हो गई है और अब खिसियाहट में वह यह कह रहे है कि जीत का मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस की नीतियां सही हैं. अब उन्हें यह कौन बतायेगा कि सबसे ज्यादा जनादेश पाने का काक्या मतलब होता है. वास्तविकता यह है कि पश्चिम बंगाल की जनता भी अब वामपंथियों की तथाकथित पंथ निरपेक्षता और शासन से ऊब चुकी है.
लोकसभा के चुनाव परिणाम वहां से वामपंथियों की 30-32 साल पुरानी सत्ता आगामी विधान सभा चुनावों में ढहने का संकेत दे रहे हैं. केरल में तो लगभग वामपंथी ढह ही चुके हैं. कांग्रेस की एकला चलो की रणनीति यदि इसी तरह आगे भी जारी रही तो भविष्य में उ. प्र., बिहार, प. बंगाल, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि बड़े राज्यों में उसकी का रास्ता आसान हो सकता है. इन चुनाव परिणामों से एक बात और साफ जाहिर हुई है कि जनता दो बड़े दलों को ही केंद्र की राजनीति में बनाये रखना चाहती है. इसीलिए पिछडऩे के बावजूद भाजपा-कांग्रेस के बाद देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी हुई है. भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान लालकृष्ण अडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उमीदवार घोषित करने से हुआ है. इससे भी ज्यादा नुकसान खुद अडवाणी ने साफ- सुथरी छवि वाले डॉ. मनमोहन सिंह के खिलाफ व्यक्तिगत छींटाकशी करके कर लिया.
प्रधानमंत्री बनने की मराठा छत्रप शरद पवार की भी महtवाकांक्षा आडवाणी की तरह ही हमेशा के लिए धराशाई हो गई है। 15वीं लोकसभा के चुनावों में लालू-पासवान की जो दुर्गति हुई है, उससे सारे देश की जनता के साथ-साथ भारतीय रेल के करीब 14 लाख रेल कर्मचारी/अधिकारी भीअत्यंत खुश हैं, क्योंकि पहले पासवान ने और गत पांच वर्षों में लालू ने जिस तरह रेलवे का बंटाधार किया और जिस बुरी तरह से लूटा तथा जिस बुरी तरह से रेलवे में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया, उससे सभी रेल कर्मचारी बुरी तरह त्रस्त हो चुके हैं.
चुनाव परिणाम आने से पहले ही जिस तरह डूबते जहाज से सबसे पहले चूहे भागते हैं, उसी तरह लालू के डूबने से पहले उनके ओएसडी, निजी सचिव और विनोद श्रीवास्तव जैसे घरेलू नौकर टाइप तथाकथित सहायक निजी सचिव रेल मंत्रालय (रेल भवन) से अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर रफूचकर हो गए. रेलवे की नौकरशाही में यादवी bयूरोक्रेसी के प्रतीक बन गए कैलाश प्रसाद यादव और भोला यादव ने भी अपने-अपने लिए सुरक्षित ठिकाने तलाश लिए हैं. कभी डिवीजन और फील्ड में भी काम न करने वाले कैलाश प्रसाद यादव उर्फ के. पी. यादव ने जहां रे.बो. विजिलेंस में डायरेkटर ट्रैफिक का सुरक्षित दड़बा तलाशकर अपने यादवाधिराज के रहते ही वहां अपनी पोस्टिंग करा ली, वहीं लालू यादव के नाम पर रेलवे के बड़े-बड़े नौकरशाहों को नाकों चने चबवाने वाले ए. के. चंद्रा (सीपीआरओ/डीआरएम/पू.म.रे.) और भोला यादव (स्पेशल ऑफिसर/एमआर) को अभी सुरक्षित दड़बे की तलाश है. सुनने में तो यह भी आया है कि ए. के. चंद्रा नौकरी छोड़कर जा रहे हैं. जबकि भोला यादव की सबसे सुरक्षित जगह लालू के घर भाजी खरीदने-पहुंचाने में ही है, जो कि वे आज तक करते आये हैं.
बहरहाल जो होता है अच्छे के लिए होता है. प्राकृतिक न्याय से बड़ा कोई न्याय नहीं हो सकता. भारतीय न्यायिक प्रणाली तो लालू को दंडित नहीं कर पाई मगर जनता ने यह कर दिया क्योंकि लालू राज में भा. रे. को जितना नुकसान पहुंचा और जितना भ्रष्टाचार एवं लूट को बढ़ावा मिला, उतना इससे पहले शायद किसी रेल मंत्री के कार्यकाल में नहीं हुआ था. लालू तो इन मामलों में अपने पूर्ववर्ती रामविलास पासवान और जाफर शरीफ से भी दस कदम आगे निकल गए थे. तथापि जो हुआ, अनपेक्षित हुआ. मगर सर्वसामान्य एवं प्रशासनिक दृष्टिकोण से बहुत अच्छा हुआ...!!
Wednesday, 20 May 2009
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