Thursday 30 April, 2009

आरसीटी वाइस चेयरमैन सेलेक्शन में भेदभाव

कोलकाता हाईकोर्ट का स्थगनादेश


कोलकाता : वैसे तो पूर्व सेक्रेटरी/रेलवे बोर्ड और वर्तमान मेंबर आरसीटी दिल्ली मैथ्यू जॉन स्वयं को बहुत ईमानदार और भेदभाव रहित साबित करते रहे हैं, मगर एक तो दिल्ली के बाहर उन्होंने कभी रेल सेवा करना उचित नहीं समझा था, भले ही इसके लिए उन्होंने महाप्रबंधकी छोड़कर सेक्रेटरी/रे.बो. का उससे ज्यादा प्रभावकारी पद हासिल कर लिया था. इसके बाद भी रेल सेवा से रिटायर होने से पहले उन्होंने स्वयं को आरसीटी/दिल्ली का मेंबर भी बना लिया. क्योंकि वह स्वयं इस सेलेक्शन के लिए बतौर सेक्रेटरी/रे.बो. सक्षम थे. इसके बाद भी कुछ योग्य अधिकारियों को दरकिनार करके आरसीटी के वाइस चेयरमैन पदों पर उन्होंने स्वयं एक कंडीडेट रहते हुए भेदभावपूर्ण सेलेक्शन किया, जिस पर कोलकाता हाईकोर्ट ने स्थगनादेश दिया है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार जनवरी 2008 में मेंबर, रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल (आरसीटी) के चयन में मैथ्यू जॉन स्वयं भी बतौर एक मेंबर चयनित हुए थे, जो कि बतौर सेक्रेटरी/रे.बो. इस चयन के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी थे. इसके बाद जून 2008 में भी आरसीटी के वाइस चेयरमैन पदों पर चयन किया गया. इस चयन में भी मैथ्यू जॉन स्वयं भी एक कंडीडेट थे, जबकि बतौर कंडीडेट उन्हें यह चयन करने का कोई अधिकार नहीं था. नैतिक रूप से भी उन्हें इस चयन प्रक्रिया से हट जाना चाहिए था. बताते हैं कि जून 2008 में हुई इस चयन प्रक्रिया में उपरोक्त नियम एवं नैतिक खामी के अलावा इस भेदभावपूर्ण चयन में पूर्व एएम/सी श्री एस. आर. ठाकुर जैसे कुछ योग्य उम्मीदवारों को जान-बूझकर श्री मैथ्यू जॉन ने दरकिनार किया था.

प्राप्त जानकारी के अनुसार श्री एस. आर. ठाकुर द्वारा कोलकाता हाईकोर्ट में दायर एक याचिका पर हाईकोर्ट ने जून 2008 में हुए इस चयन को स्थगित करते हुए इस पर अंतिम फैसला आने तक स्थगनादेश जारी कर दिया है. श्री ठाकुर ने फोन पर 'रेलवे समाचार' से इस बात की पुष्टि की है. ज्ञातव्य है कि श्री मैथ्यू जॉन सहित चार-पांच अन्य अधिकारियों ने सेवानिवृत्ति से पहले अक्टूबर-नवंबर 2008 में बतौर मेंबर विभिन्न आरसीटी में ज्वाइन कर लिया था.

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि विवेक सहाय और मैथ्यू जॉन जैसे तथाकथित ईमानदार भी अपने स्वार्थ में न तो पक्षपात करने से बच पाते हैं और न ही इस लालच में उन्हें सामान्य नैतिकता का पालन करने की बात ध्यान रहती है, तब ऐसे लोग सर्वज्ञात भ्रष्टों को भी भ्रष्ट कहने या मानने के अधिकारी कैसे हो सकते हैं?

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