श्रमिक दिवस 1 मई पर विशेष
भटक गया मजदूर आन्दोलन
एम. डी. साठे
'शिकागो क्रांति' को हुए आज 100 साल से ज्यादा हो चुके हैं और इतना ही समय मजदूरों को कारखाना मालिकों की कैद और गुलामी से मुक्त हुए भी हो चुका है. जब उन्हें अपनी जिंदगी के भय से बंधुआ मजदूरों की तरह काम करना पड़ता था. उन्हें दोपहर का खाना खाने का समय नहीं दिया जाता था, कोई लंच टाइम नहीं था, काम का कोई निर्धारित समय तय नहीं था. कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं था. कोई ओवर टाइम नहीं मिलता था. एक दिन का भोजन जुटाने के लिए उन्हें तमाम जिल्लतों के साथ अति अमानवीय स्थितियों में काम (मजदूरी) करना पड़ता था. उन्हें कोई शिकायत करने का अधिकार नहीं था. यदि किसी मजदूर ने मालिक के खिलाफ कोई विरोधी स्वर निकाला तो उसे बुरी तरह पीटा जाता था और जंजीरों से बांधकर उससे काम करवाया जाता था. फिर भी यदि उनके स्वर में तब्दीली नहीं आती थी तो उन्हें बुरी तरह टार्चर किया जाता था. कोड़ों से पीटकर और जंजीरों से जकड़कर रखा जाता था.
परंतु श्रमिकों के इस उत्पीडऩ का भी अंतत: अंत हुआ. उन अति प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद श्रमिक एकजुट हुए. जुल्म और अमानवीय बर्ताव के खिलाफ उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की. इसके परिणामस्वरूप 'शिकागो क्रांति' हुई, जिसमें सैकड़ों-हजारों निहत्थे-निरीह मजदूर मारे गए. हजारों श्रमिकों को जेलों में ठूंस दिया गया. परंतु अंतत: संगठित हुए श्रमिकों की आवाज का प्रभाव पड़ा. उन्हें संगठित होने, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने, बेहतर कार्य स्थितियों, जीवन यापन लायक न्यूनतम वेतनमान, कार्य का निर्धारित समय (घंटे), साप्ताहिक अवकाश, ओवरटाइम आदि सुविधाओं को बहाल किया गया. इसी के बाद से पूरे विश्व में ट्रेड यूनियन मूवमेंट (मजदूर आंदोलन) की नींव पड़ी. इसी दरम्यान मजदूर आंदोलन को अन्याय के खिलाफ मजदूरों की आवाज के रूप में जाना जाने लगा और इसे मान्यता दी जाने लगी. इसके परिणामस्वरूप श्रमिकों की कुल जीवन स्थितियों में काफी सुधार शुरू हुआ.
आज यह सारा परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है. 1 मई 2009 को 'मई दिवस' की पूर्व संध्या पर उन हजारों श्रमिकों को श्रद्धांजलि देते हुए, जिन्होंने श्रमिक अधिकारों के लिए अपनी जान गंवाकर भावी पीढ़ी को गर्व एवं सम्मान के साथ जीने का अधिकार दिलाया था, 'मई दिवस' पर रैली, मोर्चा निकालकर, मीटिंगें करके इसकी औपचारिकता निभाई जा रही है. मई दिवस अथवा श्रमिक दिवस का महत्व भी अब शायद ही तमाम श्रमिकों और उनके नेताओं को ज्ञात हो. अब वे सिर्फ संगठित होने की आवश्यकता, गुलामी से मुक्ति के भाषणों के बीच 'मजदूर एकता जिंदाबाद' के नारे लगवाकर ही अपने कर्तव्य की पूर्ति समझ रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों से अन्याय, अत्याचार, भेदभाव, जुल्म, सख्ती और उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्ष के इतिहास को लगभग भुला दिया गया है. 'मई दिवस' एक औपचारिक कर्मकांड बन कर रह गया है. श्रमिक अधिकारों के लिए अपनी जान गंवाने वालों को यदि थोड़ी देर के लिए एक किनारे रख दिया जाए तो भी आज मजदूर आंदोलन इस कदर टुकड़ों में बंटा हुआ है कि 'मई दिवस' के अवसर पर भी श्रमिक संगठन एक साथ खड़े दिखाई नहीं देते हैं. मगर सब 'अपनी-अपनी ढपली, अपनी-अपनी राग' अलापते हुए 'हम सब एक हैं', 'दुनिया के मजदूरों एक हो', 'मजदूर एकता जिंदाबाद' चिल्लाते नजर आते हैं. वास्तव में ये मजदूर संगठन अलग-अलग नजर आते हैं. वास्तव में ये मजदूर संगठन अलग-अलग मंच पर खड़े होकर एक-दूसरे से ज्यादा दूरी, ज्यादा मतभेदों और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की तिकड़म करते नजर आते हैं. वास्तविक स्थिति यह है कि सैकड़ों साल पहले जहां श्रमिकों ने एकजुट होकर संघर्ष किया और संगठित होने का एक रास्ता दिखाया, वहीं आज श्रमिक वर्ग बंटा हुआ है. वह अपने अधिकारों से अनभिज्ञ होकर उनके प्रति जागरूक नहीं है. वह मजदूर आंदोलन के मायने भूल गया है और नेतृत्व के प्रति उसमें अविश्वास एवं आशंका घर कर गई है.
श्रम संगठनों के भटकाव के मेरी समझ से दो प्रमुख कारण हैं. पहला यह कि श्रम संगठन राजनीतिक पार्टियों के हाथ का खिलौना बन गए हैं. दूसरा यह कि संगठित होने की जरूरत का अहसास श्रमिकों को नहीं रह गया है. बल्कि उन्हें इस बात से अनभिज्ञ रखा गया है, जिससे कि नेतृत्व की पकड़ उन पर बनी रहे और वे उन पर हमेशा लदे रह सकें. मजदूर आंदोलन के क्षेत्र में विशेष रूप से आजादी के बाद यह ट्रेंड काफी तेजी से बढ़ा है और राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने मजदूर संगठन तेजी से खड़े किए हैं. यह एक-दूसरे से ज्यादा मजदूर हितैषी दिखने की तर्ज पर किया गया. यह सब इसलिए भी सफल हो सका क्योंकि श्रमिकों में जानकारी का अभाव था. जो कि यह नहीं सोचते थे कि यूनियन नेताओं के प्रति उनका अंधविश्वास संगठनों में दोहरापन पैदा करेगा. इसके फलस्वरूप उनकी एकता और शक्ति काफी क्षीण हुई. इससे श्रमिक उद्देश्यों की पूर्ति तो नहीं हुई बल्कि 'मजदूर एकता जिंदाबाद' का नारा एक विसंगति बनकर रह गया है.
मजदूर नेताओं ने जानबूझकर इस विसंगति को घटित होने दिया क्योंकि यही सब होते रहना उनके व्यक्तिगत हित में भी था. आज उद्योग हों, बैंकिंग अथवा सरकारी क्षेत्र हो, जो कि बड़े रोजगार क्षेत्र है, सभी क्षेत्रों में औसतन 4 से 5 श्रम संगठन बल्कि इससे भी ज्यादा कार्यरत हैं. प्रत्येक संगठन अलग-अलग मांगों का पर्चा तैयार करता है, जबकि बहुसंगठन का फायदा उठाकर कंपनी मालिक चुप बैठता है, निर्णय में जानबूझकर देरी करता है और अंतत: मजदूरों को ही इसका नुकसान होता है.
अत: श्रमिक संसार का संपूर्ण परिदृश्य बदल चुका है. आज का श्रमिक वर्ग और उनका नेतृत्व अपने मुख्य उद्देश्य / मार्ग से भटक गया है. गरिमामय एवं उद्देश्यपूर्ण मई दिवस अब नहीं रह गया है. पहले जहां मिल मालिकों, रियासतदारों के उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ था, वहीं आज श्रम संगठनों के नेतृत्व और उनके निहित स्वार्थ के खिलाफ वैसा ही एकजुट संघर्ष चलाए जाने की आवश्यकता आ पड़ी है. ऐसा होने में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह यह है कि श्रमिक और उनके नेता अपने निजी स्वार्थवश आपस में ही एक-दूसरे के शोषण का कारण बन गए हैं, जिससे उन्हें समाज में एक सम्मानजनक दर्जा दिलाने और दूसरे वर्गों के समकक्ष लाने का उद्देश्य गौण हो गया है.
उपरोक्त परिदृश्य की शुरुआत आजादी के बाद से ही हो गई थी, जब प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को अपनी पार्टी की मजदूर यूनियन खड़ी करने का अहसास हुआ था, वह भी इसलिए राजनीतिक पार्टियों को उनके लिए नारे लगाने वाली भीड़ की जरूरत थी. ऐसे में श्रमिक मजदूर एकता और उनकी मांगें दोयम उद्देश्य बनकर रह गईं. इसके अलावा इस परिदृश्य का मजदूर आंदोलन में जो सबसे बुरा प्रभाव पड़ा, वह यह था कि इसमें भी 'व्यक्ति पूजा' की शुरुआत हो गई. यानी मजदूर नेता की अहमियत प्राथमिक हो गई और यूनियन या मजदूर संगठन दोयम दर्जे पर चले गए. मजदूर नेता अपने कद/पद से बड़े हो गए और श्रमिक संस्था/संगठन दोयम रह गए. यहां आकर 'संगठन प्रथम' का जो आधारभूत उद्देश्य था, वह पूरी तरह नष्ट हो गया. अब श्रमिकों को सर्वप्रथम अपने नेता को सलाम करना पड़ता है और उसकी सुख सुविधाओं का ख्याल रखना पड़ता है. बाद में संगठन का. यह प्रवृत्ति अब भी बढ़ती जा रही है और इससे मजदूरों की आवाज लगातार दबती जा रही है. यदि वह अपने नेता की जी-हुजूरी नहीं करता है तो संगठन में उसकी कोई अहमियत नहीं है और उसे निश्चित रूप से निकाल बाहर किया जाता है.
इस देश में प्रत्येक स्तर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू है. प्रत्येक संस्था/संगठन, जो भी है, में प्रत्येक स्तर पर उसके पदाधिकारियों की एक चुनी हुई कार्यकारिणी होनी चाहिए. यह व्यवस्था इसलिए है कि जिससे सभी को अपनी बात कहने/रखने का अवसर मिल सके. श्रमिक संगठनों में यह लोकतांत्रिक व्यवस्था इसलिए और भी जरूरी है. मगर आज लगभग प्रत्येक श्रमिक संगठन में इसकी जो स्थिति है, उसके बारे में ज्यादा कुछ न कहना ही बेहतर होगा. तथापि इतना तो कहना ही पड़ेगा कि आज शायद किसी भी श्रमिक संगठन में लोकतांत्रिकता का सर्वथा अभाव है. जिससे सर्वसामान्य श्रमिक/मजदूर इन संगठनों से दूर चला गया है. उनके मन में अपने संगठन और नेतृत्व प्रति सम्मान या आदर का भाव नहीं रह गया है. वह सिर्फ उन्हें चंदा इसलिए दे रहे हैं कि जिससे इनके पदाधिकारी मात्र इसीलिए उनका उत्पीडऩ न करवायें.
आज ट्रेड यूनियन मूवमेंट राजनीति और देश में हो रहे विकास से प्रभावित है. यह स्वाभाविक भी है. मगर इस विकास का परिणाम यह हो रहा है कि सर्वसामान्य मजदूर इससे दूर जा रहा है. श्रमिक नेतृत्व श्रमिकों में जागरूकता नहीं लाना चाहता. इसके परिणामस्वरूप श्रमिक एवं उनके नेतागण अथवा पदाधिकारी अपने संवैधानिक दायित्वों/प्रावधानों से अनभिज्ञ हैं. सर्वसामान्य श्रमिकों एवं पदाधिकारीगणों का काम सिर्फ ऊपर से मिलने वाले आदेशों का पालन करना मात्र रह गया है.
आज वर्ष 2009 आते-आते मजदूर आंदोलन किस स्थिति में पहुंच गया है इससे 'रेलवे समाचार' के पाठकगण बखूबी वाकिफ हैं. आज मजदूरों की जीवन यापन की स्थितियां क्या हैं और इसके साथ ही ट्रेड यूनियनों की हालत क्या हो रही है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार किए जाने की जरूरत है. 'मई दिवस' के अवसर पर सर्वसामान्य मजदूरों को और विशेष रूप से ट्रेड यूनियनों को इस पर विचार करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या सब कुछ ठीक है...? जैसा कि पहले भी बताया गया है कि मजदूर आंदोलन वर्ष 1947 के बाद टुकड़ों में बंट गया था और प्रत्येक राजनीतिक पार्टी ने अपनी पार्टी की एक यूनियन खड़ी कर दी थी. इसे वर्ष 1991 में शुरू हुई नई अर्थ नीति और भूमंडलीकरण ने और भी नुकसान पहुंचाया है. वर्ष 1991 से वर्ष 2009 के दरम्यान श्रमिक आंदोलन का संपूर्ण परिदृश्य बदल गया है और इसके चलते मजदूर आंदोलन लगभग समाप्त हो गया है.
अब तो ट्रेड यूनियन रजिस्ट्रेशन एक्ट, कागज पर चल रही सैकड़ों-हजारों यूनियनें, यूनियन बैनर्स-पोस्टर्स और यूनियन कार्यालय, मीटिंग्स आदि सब दिखावे की चीजें रह गई हैं. श्रमिक आंदोलन, धरना-मोर्चा और हड़तालों का वक्त समाप्त हो चुका है. निजीकरण का प्रभाव बहुत बुरी तरह से पड़ रहा है. इससे बेरोजगारी और कम वेतनमान, कार्य के ज्यादा घंटे या ज्यादा काम के तौर पर श्रमिकों का उत्पीडऩ हो रहा है. श्रमिक कानून जैसे न्यूनतम वेतन, रोजगार नियम के अनुसार काम का निर्धारित समय, वर्कमैन कम्पेनसेशन, फैक्टरी एक्ट आदि सिर्फ इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आईएलओ) और भारतीय संविधान के प्रावधानों की ही मात्र खानापूर्ति कर रहे हैं. खेती, भवन निर्माण और लघु उद्योग-धंधों के क्षेत्र के मजदूर सर्वाधिक शोषण का शिकार हो रहे हैं. उनकी सुनने वाला आज भी कोई नहीं है. इसके अलावा आधुनिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े उद्योगों, जो औसतन प्रतिमाह 1 लाख रु. और उससे ज्यादा वेतन का भुगतान कर रहे हैं, में काम के कोई निर्धारित घंटे नहीं हैं और न ही श्रमिकों को अपने मुताबिक छुट्टी लेने की ही वहां आजादी है. इनके लाखों श्रमिकों की कोई सामाजिक जिंदगी नहीं रह गई है. यह व्यवस्था एक नई तरह की आधुनिक गुलामी को जन्म दे रही है जो कि अमूमन सैकड़ों वर्ष पहले लागू थी. परंतु इस सबके खिलाफ कहीं भी एक शब्द नहीं सुनाई पड़ रहा है. इससे हमें ट्रेड यूनियन मूवमेंट के पुराने दिनों की याद आ रही है. जब पूरे जोश के साथ श्रमिकों की 'मिलिटेंट' आवाज और संघर्ष सुनाई एवं दिखाई देता था.
आज सभी लोकतांत्रिक अधिकारों को कचरे के डिब्बे में डालकर कंपनियों एवं उनके मालिक, यहां तक कि यूनियनों के गठन की भी सहमति नहीं दे रहे हैं. यही नहीं अब तो उनके मुख्य द्वार पर 'नो यूनियन्स इनसाइड' का बोर्ड भी लगा दिखाई देने लगा है. इसका क्या यह मतलब निकाला जाए कि अब श्रमिकों के साथ-साथ यूनियनों का भी खात्मा हो गया है. इससे यह संदेश जा रहा है कि गुलामी से निजात पाने के लिए लाखों श्रमिकों ने जो बलिदान दिया था और गरिमापूर्ण ढंग से जीने का अधिकार हासिल किया था, वह अब बीते दिनों की बात हो गई है. मगर अब यह एक 'कड़वी सच्चाई' है कि यूनियन के गठन की आजादी, पंजीकरण और श्रमिकों और उनके श्रमिक अधिकारों का संरक्षण और जमीन पर जो भी उपलब्ध है, उस पर श्रमिकों एवं उनकी यूनियनों का भी पूरा हक है, जिससे वह गुलामी से निजात पाने के लिए दिए गए लाखों मजदूरों की बलि आदि सब अब बीते दिनों की बातें हो गई हैं.
आजकल यूनियनें और श्रमिक आंतरिक कलह एवं एक-दूसरे पर अपना वर्चस्व बनाने में व्यस्त रहने लगे हैं, जिससे श्रमिकों का हित, उनके अधिकारों की रक्षा आदि मुद्दे श्रमिक यूनियनों के केंद्रीय मुद्दे नहीं रह गए हैं. श्रमिक आंदोलन सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के आंदोलन बनकर रह गए हैं. श्रमिकों और या मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए राजनीतिक पार्टियां चुनाव के समय अपने घोषणा पत्रों में बड़े-बड़े आश्वासन देती हैं और चुनाव के बाद अगले चुनाव तक के लिए उन्हें भूल जाती हैं, जिस तरह चुनाव के बाद राजनीतिक नेतागण आम आदमी से कोसों दूर चले जाते हैं, ठीक उसी तरह का व्यवहार आजकल ट्रेड यूनियन मूवमेंट के स्थापित नेतागण भी करने लगे हैं. वह भी सर्वसामान्य श्रमिकों से कट गए हैं. सर्वसाधारण वार्षिक सभाओं में श्रमिकों को आकर्षित करने के लिए कई आकर्षक और लोक-लुभावन प्रस्ताव पारित किए जाते हैं, जबकि सर्वसामान्य मजदूर इन सर्वसाधारण सभाओं में भी अब शामिल नहीं होना चाहता, बल्कि वास्तविकता यह है कि रेलवे के क्षेत्र में तो निचले वर्ग के श्रमिकों को उनके डिपुओं से भेड़ बकरियों की तरह हांककर इन सभाओं में भीड़ इकट्ठी करने के लिए लाया जाता है.
यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सन 1948 में स्थापित 'हिंद मजदूर सभा' राष्ट्रीय स्तर का एकमात्र ऐसा केंद्रीय श्रम संगठन है, जिसने इस दृष्टिकोण को केंद्र में रखा कि राजनीतिक पार्टियों से जुड़े श्रमिक संगठनों से श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकती और इसी दृष्टिकोण के तहत 'एचएमएस' की स्थापना हुई थी, जिसने मुक्त, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक मजदूर आंदोलन के दर्शन को अपनाया था. इसका यह दर्शन आधी शताब्दी तक फलीभूत भी हुआ. परंतु अब इसका यह दर्शन भी इसके नेतृत्व की आंतरिक आपसी खींचतान के कारण लगभग विलुप्त होता जा रहा है.
इसके अलावा रेलवे के विस्तृत कार्यक्षेत्र, जिसमें देश के सर्वाधिक संख्या में जहां करीब 17 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ था, जो कि अब घटकर करीब 13 लाख से कुछ ही ज्यादा रह गये हैं, में भी वर्ष 1925 में ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) सबसे पुरानी लेबर फेडरेशन की स्थापना हुई थी. हालांकि एआईआरएफ आज भी अपने इस क्षेत्र में अग्रणी है और राष्ट्रीय स्तर पर यह एकमात्र सबसे बड़ी लेबर फेडरेशन भी है, जिसने दो साल पहले रेलवे के इतिहास में पहली बार हुए गुप्त मतदान के जरिए यूनियनों के चुनाव में 15 जोनों में अपने वर्चस्व को साबित किया है. एआईआरएफ में आज भी वह क्षमता है कि अन्य छोटी-बड़ी यूनियनों का नेतृत्व कर सके और श्रमिकों को चिंता से मुक्त करा सके परंतु स्थिति यह हो गई है कि रेलवे संगठनों में दो-फाड़ चल पड़ी है. परिणामस्वरूप रेल मजदूरों को संगठित करने या होने के लिए सरकार ने हस्तक्षेप किया तथा एक मजबूत मजदूर संस्था खड़ा करने के लिए नवंबर 2007 में राष्ट्रीय स्तर पर रेलवे में सर्वथा पहली बार गुप्त मतदान के जरिए यूनियनों के चुनाव करवाये गए.
रेलवे के इतिहास में यह एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में दर्ज हुआ है. परंतु सरकार के 'एक उद्योग - एक संगठन' के सिद्धांत-नियम के सामने यह सारा ड्रामा ही साबित हुआ और स्थिति यह है कि इतने बड़े ड्रामे के बाद और निर्धारित मानक प्राप्त न कर पाने के बावजूद तथा नियमानुसार इस तमाम कवायद में एआईआरएफ के एक 'सिंगल लार्जेस्ट' यूनियन बनकर उभरने के पश्चात भी दूसरी फेडरेशन को जोड़-तोड़ करके मान्यता प्रदान कर दी गई. यह ड्रामा तब और ज्यादा सही साबित हुआ जब किसी भी मान्यता प्राप्त संगठन की पूर्व प्रदत्त तमाम सुविधाएं आदि वापस नहीं लेकर वहीं से इन्हें सरकारी ड्रामे को संचालित करने दिया गया था जबकि उनके सामने गैर मान्यताप्राप्त संगठनों को बिना किसी सुविधा के यह चुनाव लडऩा पड़ा. इसलिए यह चुनाव न तो दबाव-लालच से मुक्त थे और न ही भेदभाव रहित. जाहिर है कि इस पूरी कवायद या ड्रामेबाजी में पैसा, मानव संसाधन, लाखों मानवीय कार्य घंटे और सारी मेहनत व्यर्थ बरबाद हुई. सच्चाई यह है कि मान्यताप्राप्त संगठनों ने करोड़ों रुपए इस ड्रामेबाजी में खर्च किए जो कि इन्हें रेलकर्मचारियों ने बतौर चंदा दिया था. इस सबका नतीजा यह है कि रेलवे में दोनों फेडरेशन/यूनियन बरकरार हैं. मान्यताप्राप्त हैं और दोनों ही रेल मजदूरों का शोषण कर रही हैं. प्रशासन ने इस पूरी ड्रामेबाजी से रेल मजदूरों को न सिर्फ मजाक उड़ाया है बल्कि उन्हें बुरी तरह से मूर्ख भी बनाया है. निचले वर्ग के कर्मचारी को न तो अंदर की कहानी मालूम है और न ही वह 'एक संगठन' की थ्योरी को समझ पाया है. परंतु मान्यताप्राप्त संगठन इसे बखूबी समझ रहे हैं क्योंकि यदि यह सिद्धांत वास्तव में लागू हुआ होता और वास्तव में मजदूरों ने इसे समझ लिया होता तो यह निश्चित है कि उन्हें तमाम सुविधाओं और अपने साम्राज्य से बेदखल होना पड़ता, जिसमें से एक सांसद जैसी तमाम सुविधाएं शामिल हैं. मुफ्त घर, मुफ्त रेल प्रवास (और अब मजदूरों के पैसे से हवाई यात्रा भी), मुफ्त टेलीफोन, कार्यालय आदि-आदि.
रेलवे में अथवा देश के अन्य सभी क्षेत्रों में उपरोक्त स्थिति आज सिर्फ इसलिए है क्योंकि मजदूरों को 'मई दिवस' की महत्ता याद नहीं रह गई है और यह बलिदान इसलिए उनके दिमाग से पोंछ दिया गया है कि जिससे वह नेतृत्व के लिए चुनौती न बनें, जिस तरह सामान्य मतदाता को इस बात की चिंता नहीं होती कि उसके चुने हुए जनप्रतिनिधि क्या करते हैं, उसी तरह यूनियनों के सर्वसामान्य सदस्यों की भी वही स्थिति है, जो कि अंतत: उन्हीं के हितों पर कुठाराघात कर रही है. मेहनतकश मजदूरों जागृत रहो, आज जी-हुजूरी, चरणस्पर्श और अंधविश्वास का समय नहीं है. उन्हें वास्तविक चेहरों को पहचानना चाहिए.
(इस लेख के विचार लेखक के अपने हैं. उनके विचारों से 'रेलवे समाचार' का सहमत होना जरूरी नहीं है.)
भटक गया मजदूर आन्दोलन
एम. डी. साठे
'शिकागो क्रांति' को हुए आज 100 साल से ज्यादा हो चुके हैं और इतना ही समय मजदूरों को कारखाना मालिकों की कैद और गुलामी से मुक्त हुए भी हो चुका है. जब उन्हें अपनी जिंदगी के भय से बंधुआ मजदूरों की तरह काम करना पड़ता था. उन्हें दोपहर का खाना खाने का समय नहीं दिया जाता था, कोई लंच टाइम नहीं था, काम का कोई निर्धारित समय तय नहीं था. कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं था. कोई ओवर टाइम नहीं मिलता था. एक दिन का भोजन जुटाने के लिए उन्हें तमाम जिल्लतों के साथ अति अमानवीय स्थितियों में काम (मजदूरी) करना पड़ता था. उन्हें कोई शिकायत करने का अधिकार नहीं था. यदि किसी मजदूर ने मालिक के खिलाफ कोई विरोधी स्वर निकाला तो उसे बुरी तरह पीटा जाता था और जंजीरों से बांधकर उससे काम करवाया जाता था. फिर भी यदि उनके स्वर में तब्दीली नहीं आती थी तो उन्हें बुरी तरह टार्चर किया जाता था. कोड़ों से पीटकर और जंजीरों से जकड़कर रखा जाता था.
परंतु श्रमिकों के इस उत्पीडऩ का भी अंतत: अंत हुआ. उन अति प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद श्रमिक एकजुट हुए. जुल्म और अमानवीय बर्ताव के खिलाफ उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की. इसके परिणामस्वरूप 'शिकागो क्रांति' हुई, जिसमें सैकड़ों-हजारों निहत्थे-निरीह मजदूर मारे गए. हजारों श्रमिकों को जेलों में ठूंस दिया गया. परंतु अंतत: संगठित हुए श्रमिकों की आवाज का प्रभाव पड़ा. उन्हें संगठित होने, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने, बेहतर कार्य स्थितियों, जीवन यापन लायक न्यूनतम वेतनमान, कार्य का निर्धारित समय (घंटे), साप्ताहिक अवकाश, ओवरटाइम आदि सुविधाओं को बहाल किया गया. इसी के बाद से पूरे विश्व में ट्रेड यूनियन मूवमेंट (मजदूर आंदोलन) की नींव पड़ी. इसी दरम्यान मजदूर आंदोलन को अन्याय के खिलाफ मजदूरों की आवाज के रूप में जाना जाने लगा और इसे मान्यता दी जाने लगी. इसके परिणामस्वरूप श्रमिकों की कुल जीवन स्थितियों में काफी सुधार शुरू हुआ.
आज यह सारा परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है. 1 मई 2009 को 'मई दिवस' की पूर्व संध्या पर उन हजारों श्रमिकों को श्रद्धांजलि देते हुए, जिन्होंने श्रमिक अधिकारों के लिए अपनी जान गंवाकर भावी पीढ़ी को गर्व एवं सम्मान के साथ जीने का अधिकार दिलाया था, 'मई दिवस' पर रैली, मोर्चा निकालकर, मीटिंगें करके इसकी औपचारिकता निभाई जा रही है. मई दिवस अथवा श्रमिक दिवस का महत्व भी अब शायद ही तमाम श्रमिकों और उनके नेताओं को ज्ञात हो. अब वे सिर्फ संगठित होने की आवश्यकता, गुलामी से मुक्ति के भाषणों के बीच 'मजदूर एकता जिंदाबाद' के नारे लगवाकर ही अपने कर्तव्य की पूर्ति समझ रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों से अन्याय, अत्याचार, भेदभाव, जुल्म, सख्ती और उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्ष के इतिहास को लगभग भुला दिया गया है. 'मई दिवस' एक औपचारिक कर्मकांड बन कर रह गया है. श्रमिक अधिकारों के लिए अपनी जान गंवाने वालों को यदि थोड़ी देर के लिए एक किनारे रख दिया जाए तो भी आज मजदूर आंदोलन इस कदर टुकड़ों में बंटा हुआ है कि 'मई दिवस' के अवसर पर भी श्रमिक संगठन एक साथ खड़े दिखाई नहीं देते हैं. मगर सब 'अपनी-अपनी ढपली, अपनी-अपनी राग' अलापते हुए 'हम सब एक हैं', 'दुनिया के मजदूरों एक हो', 'मजदूर एकता जिंदाबाद' चिल्लाते नजर आते हैं. वास्तव में ये मजदूर संगठन अलग-अलग नजर आते हैं. वास्तव में ये मजदूर संगठन अलग-अलग मंच पर खड़े होकर एक-दूसरे से ज्यादा दूरी, ज्यादा मतभेदों और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की तिकड़म करते नजर आते हैं. वास्तविक स्थिति यह है कि सैकड़ों साल पहले जहां श्रमिकों ने एकजुट होकर संघर्ष किया और संगठित होने का एक रास्ता दिखाया, वहीं आज श्रमिक वर्ग बंटा हुआ है. वह अपने अधिकारों से अनभिज्ञ होकर उनके प्रति जागरूक नहीं है. वह मजदूर आंदोलन के मायने भूल गया है और नेतृत्व के प्रति उसमें अविश्वास एवं आशंका घर कर गई है.
श्रम संगठनों के भटकाव के मेरी समझ से दो प्रमुख कारण हैं. पहला यह कि श्रम संगठन राजनीतिक पार्टियों के हाथ का खिलौना बन गए हैं. दूसरा यह कि संगठित होने की जरूरत का अहसास श्रमिकों को नहीं रह गया है. बल्कि उन्हें इस बात से अनभिज्ञ रखा गया है, जिससे कि नेतृत्व की पकड़ उन पर बनी रहे और वे उन पर हमेशा लदे रह सकें. मजदूर आंदोलन के क्षेत्र में विशेष रूप से आजादी के बाद यह ट्रेंड काफी तेजी से बढ़ा है और राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने मजदूर संगठन तेजी से खड़े किए हैं. यह एक-दूसरे से ज्यादा मजदूर हितैषी दिखने की तर्ज पर किया गया. यह सब इसलिए भी सफल हो सका क्योंकि श्रमिकों में जानकारी का अभाव था. जो कि यह नहीं सोचते थे कि यूनियन नेताओं के प्रति उनका अंधविश्वास संगठनों में दोहरापन पैदा करेगा. इसके फलस्वरूप उनकी एकता और शक्ति काफी क्षीण हुई. इससे श्रमिक उद्देश्यों की पूर्ति तो नहीं हुई बल्कि 'मजदूर एकता जिंदाबाद' का नारा एक विसंगति बनकर रह गया है.
मजदूर नेताओं ने जानबूझकर इस विसंगति को घटित होने दिया क्योंकि यही सब होते रहना उनके व्यक्तिगत हित में भी था. आज उद्योग हों, बैंकिंग अथवा सरकारी क्षेत्र हो, जो कि बड़े रोजगार क्षेत्र है, सभी क्षेत्रों में औसतन 4 से 5 श्रम संगठन बल्कि इससे भी ज्यादा कार्यरत हैं. प्रत्येक संगठन अलग-अलग मांगों का पर्चा तैयार करता है, जबकि बहुसंगठन का फायदा उठाकर कंपनी मालिक चुप बैठता है, निर्णय में जानबूझकर देरी करता है और अंतत: मजदूरों को ही इसका नुकसान होता है.
अत: श्रमिक संसार का संपूर्ण परिदृश्य बदल चुका है. आज का श्रमिक वर्ग और उनका नेतृत्व अपने मुख्य उद्देश्य / मार्ग से भटक गया है. गरिमामय एवं उद्देश्यपूर्ण मई दिवस अब नहीं रह गया है. पहले जहां मिल मालिकों, रियासतदारों के उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ था, वहीं आज श्रम संगठनों के नेतृत्व और उनके निहित स्वार्थ के खिलाफ वैसा ही एकजुट संघर्ष चलाए जाने की आवश्यकता आ पड़ी है. ऐसा होने में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह यह है कि श्रमिक और उनके नेता अपने निजी स्वार्थवश आपस में ही एक-दूसरे के शोषण का कारण बन गए हैं, जिससे उन्हें समाज में एक सम्मानजनक दर्जा दिलाने और दूसरे वर्गों के समकक्ष लाने का उद्देश्य गौण हो गया है.
उपरोक्त परिदृश्य की शुरुआत आजादी के बाद से ही हो गई थी, जब प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को अपनी पार्टी की मजदूर यूनियन खड़ी करने का अहसास हुआ था, वह भी इसलिए राजनीतिक पार्टियों को उनके लिए नारे लगाने वाली भीड़ की जरूरत थी. ऐसे में श्रमिक मजदूर एकता और उनकी मांगें दोयम उद्देश्य बनकर रह गईं. इसके अलावा इस परिदृश्य का मजदूर आंदोलन में जो सबसे बुरा प्रभाव पड़ा, वह यह था कि इसमें भी 'व्यक्ति पूजा' की शुरुआत हो गई. यानी मजदूर नेता की अहमियत प्राथमिक हो गई और यूनियन या मजदूर संगठन दोयम दर्जे पर चले गए. मजदूर नेता अपने कद/पद से बड़े हो गए और श्रमिक संस्था/संगठन दोयम रह गए. यहां आकर 'संगठन प्रथम' का जो आधारभूत उद्देश्य था, वह पूरी तरह नष्ट हो गया. अब श्रमिकों को सर्वप्रथम अपने नेता को सलाम करना पड़ता है और उसकी सुख सुविधाओं का ख्याल रखना पड़ता है. बाद में संगठन का. यह प्रवृत्ति अब भी बढ़ती जा रही है और इससे मजदूरों की आवाज लगातार दबती जा रही है. यदि वह अपने नेता की जी-हुजूरी नहीं करता है तो संगठन में उसकी कोई अहमियत नहीं है और उसे निश्चित रूप से निकाल बाहर किया जाता है.
इस देश में प्रत्येक स्तर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू है. प्रत्येक संस्था/संगठन, जो भी है, में प्रत्येक स्तर पर उसके पदाधिकारियों की एक चुनी हुई कार्यकारिणी होनी चाहिए. यह व्यवस्था इसलिए है कि जिससे सभी को अपनी बात कहने/रखने का अवसर मिल सके. श्रमिक संगठनों में यह लोकतांत्रिक व्यवस्था इसलिए और भी जरूरी है. मगर आज लगभग प्रत्येक श्रमिक संगठन में इसकी जो स्थिति है, उसके बारे में ज्यादा कुछ न कहना ही बेहतर होगा. तथापि इतना तो कहना ही पड़ेगा कि आज शायद किसी भी श्रमिक संगठन में लोकतांत्रिकता का सर्वथा अभाव है. जिससे सर्वसामान्य श्रमिक/मजदूर इन संगठनों से दूर चला गया है. उनके मन में अपने संगठन और नेतृत्व प्रति सम्मान या आदर का भाव नहीं रह गया है. वह सिर्फ उन्हें चंदा इसलिए दे रहे हैं कि जिससे इनके पदाधिकारी मात्र इसीलिए उनका उत्पीडऩ न करवायें.
आज ट्रेड यूनियन मूवमेंट राजनीति और देश में हो रहे विकास से प्रभावित है. यह स्वाभाविक भी है. मगर इस विकास का परिणाम यह हो रहा है कि सर्वसामान्य मजदूर इससे दूर जा रहा है. श्रमिक नेतृत्व श्रमिकों में जागरूकता नहीं लाना चाहता. इसके परिणामस्वरूप श्रमिक एवं उनके नेतागण अथवा पदाधिकारी अपने संवैधानिक दायित्वों/प्रावधानों से अनभिज्ञ हैं. सर्वसामान्य श्रमिकों एवं पदाधिकारीगणों का काम सिर्फ ऊपर से मिलने वाले आदेशों का पालन करना मात्र रह गया है.
आज वर्ष 2009 आते-आते मजदूर आंदोलन किस स्थिति में पहुंच गया है इससे 'रेलवे समाचार' के पाठकगण बखूबी वाकिफ हैं. आज मजदूरों की जीवन यापन की स्थितियां क्या हैं और इसके साथ ही ट्रेड यूनियनों की हालत क्या हो रही है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार किए जाने की जरूरत है. 'मई दिवस' के अवसर पर सर्वसामान्य मजदूरों को और विशेष रूप से ट्रेड यूनियनों को इस पर विचार करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या सब कुछ ठीक है...? जैसा कि पहले भी बताया गया है कि मजदूर आंदोलन वर्ष 1947 के बाद टुकड़ों में बंट गया था और प्रत्येक राजनीतिक पार्टी ने अपनी पार्टी की एक यूनियन खड़ी कर दी थी. इसे वर्ष 1991 में शुरू हुई नई अर्थ नीति और भूमंडलीकरण ने और भी नुकसान पहुंचाया है. वर्ष 1991 से वर्ष 2009 के दरम्यान श्रमिक आंदोलन का संपूर्ण परिदृश्य बदल गया है और इसके चलते मजदूर आंदोलन लगभग समाप्त हो गया है.
अब तो ट्रेड यूनियन रजिस्ट्रेशन एक्ट, कागज पर चल रही सैकड़ों-हजारों यूनियनें, यूनियन बैनर्स-पोस्टर्स और यूनियन कार्यालय, मीटिंग्स आदि सब दिखावे की चीजें रह गई हैं. श्रमिक आंदोलन, धरना-मोर्चा और हड़तालों का वक्त समाप्त हो चुका है. निजीकरण का प्रभाव बहुत बुरी तरह से पड़ रहा है. इससे बेरोजगारी और कम वेतनमान, कार्य के ज्यादा घंटे या ज्यादा काम के तौर पर श्रमिकों का उत्पीडऩ हो रहा है. श्रमिक कानून जैसे न्यूनतम वेतन, रोजगार नियम के अनुसार काम का निर्धारित समय, वर्कमैन कम्पेनसेशन, फैक्टरी एक्ट आदि सिर्फ इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आईएलओ) और भारतीय संविधान के प्रावधानों की ही मात्र खानापूर्ति कर रहे हैं. खेती, भवन निर्माण और लघु उद्योग-धंधों के क्षेत्र के मजदूर सर्वाधिक शोषण का शिकार हो रहे हैं. उनकी सुनने वाला आज भी कोई नहीं है. इसके अलावा आधुनिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े उद्योगों, जो औसतन प्रतिमाह 1 लाख रु. और उससे ज्यादा वेतन का भुगतान कर रहे हैं, में काम के कोई निर्धारित घंटे नहीं हैं और न ही श्रमिकों को अपने मुताबिक छुट्टी लेने की ही वहां आजादी है. इनके लाखों श्रमिकों की कोई सामाजिक जिंदगी नहीं रह गई है. यह व्यवस्था एक नई तरह की आधुनिक गुलामी को जन्म दे रही है जो कि अमूमन सैकड़ों वर्ष पहले लागू थी. परंतु इस सबके खिलाफ कहीं भी एक शब्द नहीं सुनाई पड़ रहा है. इससे हमें ट्रेड यूनियन मूवमेंट के पुराने दिनों की याद आ रही है. जब पूरे जोश के साथ श्रमिकों की 'मिलिटेंट' आवाज और संघर्ष सुनाई एवं दिखाई देता था.
आज सभी लोकतांत्रिक अधिकारों को कचरे के डिब्बे में डालकर कंपनियों एवं उनके मालिक, यहां तक कि यूनियनों के गठन की भी सहमति नहीं दे रहे हैं. यही नहीं अब तो उनके मुख्य द्वार पर 'नो यूनियन्स इनसाइड' का बोर्ड भी लगा दिखाई देने लगा है. इसका क्या यह मतलब निकाला जाए कि अब श्रमिकों के साथ-साथ यूनियनों का भी खात्मा हो गया है. इससे यह संदेश जा रहा है कि गुलामी से निजात पाने के लिए लाखों श्रमिकों ने जो बलिदान दिया था और गरिमापूर्ण ढंग से जीने का अधिकार हासिल किया था, वह अब बीते दिनों की बात हो गई है. मगर अब यह एक 'कड़वी सच्चाई' है कि यूनियन के गठन की आजादी, पंजीकरण और श्रमिकों और उनके श्रमिक अधिकारों का संरक्षण और जमीन पर जो भी उपलब्ध है, उस पर श्रमिकों एवं उनकी यूनियनों का भी पूरा हक है, जिससे वह गुलामी से निजात पाने के लिए दिए गए लाखों मजदूरों की बलि आदि सब अब बीते दिनों की बातें हो गई हैं.
आजकल यूनियनें और श्रमिक आंतरिक कलह एवं एक-दूसरे पर अपना वर्चस्व बनाने में व्यस्त रहने लगे हैं, जिससे श्रमिकों का हित, उनके अधिकारों की रक्षा आदि मुद्दे श्रमिक यूनियनों के केंद्रीय मुद्दे नहीं रह गए हैं. श्रमिक आंदोलन सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के आंदोलन बनकर रह गए हैं. श्रमिकों और या मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए राजनीतिक पार्टियां चुनाव के समय अपने घोषणा पत्रों में बड़े-बड़े आश्वासन देती हैं और चुनाव के बाद अगले चुनाव तक के लिए उन्हें भूल जाती हैं, जिस तरह चुनाव के बाद राजनीतिक नेतागण आम आदमी से कोसों दूर चले जाते हैं, ठीक उसी तरह का व्यवहार आजकल ट्रेड यूनियन मूवमेंट के स्थापित नेतागण भी करने लगे हैं. वह भी सर्वसामान्य श्रमिकों से कट गए हैं. सर्वसाधारण वार्षिक सभाओं में श्रमिकों को आकर्षित करने के लिए कई आकर्षक और लोक-लुभावन प्रस्ताव पारित किए जाते हैं, जबकि सर्वसामान्य मजदूर इन सर्वसाधारण सभाओं में भी अब शामिल नहीं होना चाहता, बल्कि वास्तविकता यह है कि रेलवे के क्षेत्र में तो निचले वर्ग के श्रमिकों को उनके डिपुओं से भेड़ बकरियों की तरह हांककर इन सभाओं में भीड़ इकट्ठी करने के लिए लाया जाता है.
यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सन 1948 में स्थापित 'हिंद मजदूर सभा' राष्ट्रीय स्तर का एकमात्र ऐसा केंद्रीय श्रम संगठन है, जिसने इस दृष्टिकोण को केंद्र में रखा कि राजनीतिक पार्टियों से जुड़े श्रमिक संगठनों से श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकती और इसी दृष्टिकोण के तहत 'एचएमएस' की स्थापना हुई थी, जिसने मुक्त, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक मजदूर आंदोलन के दर्शन को अपनाया था. इसका यह दर्शन आधी शताब्दी तक फलीभूत भी हुआ. परंतु अब इसका यह दर्शन भी इसके नेतृत्व की आंतरिक आपसी खींचतान के कारण लगभग विलुप्त होता जा रहा है.
इसके अलावा रेलवे के विस्तृत कार्यक्षेत्र, जिसमें देश के सर्वाधिक संख्या में जहां करीब 17 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ था, जो कि अब घटकर करीब 13 लाख से कुछ ही ज्यादा रह गये हैं, में भी वर्ष 1925 में ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) सबसे पुरानी लेबर फेडरेशन की स्थापना हुई थी. हालांकि एआईआरएफ आज भी अपने इस क्षेत्र में अग्रणी है और राष्ट्रीय स्तर पर यह एकमात्र सबसे बड़ी लेबर फेडरेशन भी है, जिसने दो साल पहले रेलवे के इतिहास में पहली बार हुए गुप्त मतदान के जरिए यूनियनों के चुनाव में 15 जोनों में अपने वर्चस्व को साबित किया है. एआईआरएफ में आज भी वह क्षमता है कि अन्य छोटी-बड़ी यूनियनों का नेतृत्व कर सके और श्रमिकों को चिंता से मुक्त करा सके परंतु स्थिति यह हो गई है कि रेलवे संगठनों में दो-फाड़ चल पड़ी है. परिणामस्वरूप रेल मजदूरों को संगठित करने या होने के लिए सरकार ने हस्तक्षेप किया तथा एक मजबूत मजदूर संस्था खड़ा करने के लिए नवंबर 2007 में राष्ट्रीय स्तर पर रेलवे में सर्वथा पहली बार गुप्त मतदान के जरिए यूनियनों के चुनाव करवाये गए.
रेलवे के इतिहास में यह एक ऐतिहासिक अवसर के रूप में दर्ज हुआ है. परंतु सरकार के 'एक उद्योग - एक संगठन' के सिद्धांत-नियम के सामने यह सारा ड्रामा ही साबित हुआ और स्थिति यह है कि इतने बड़े ड्रामे के बाद और निर्धारित मानक प्राप्त न कर पाने के बावजूद तथा नियमानुसार इस तमाम कवायद में एआईआरएफ के एक 'सिंगल लार्जेस्ट' यूनियन बनकर उभरने के पश्चात भी दूसरी फेडरेशन को जोड़-तोड़ करके मान्यता प्रदान कर दी गई. यह ड्रामा तब और ज्यादा सही साबित हुआ जब किसी भी मान्यता प्राप्त संगठन की पूर्व प्रदत्त तमाम सुविधाएं आदि वापस नहीं लेकर वहीं से इन्हें सरकारी ड्रामे को संचालित करने दिया गया था जबकि उनके सामने गैर मान्यताप्राप्त संगठनों को बिना किसी सुविधा के यह चुनाव लडऩा पड़ा. इसलिए यह चुनाव न तो दबाव-लालच से मुक्त थे और न ही भेदभाव रहित. जाहिर है कि इस पूरी कवायद या ड्रामेबाजी में पैसा, मानव संसाधन, लाखों मानवीय कार्य घंटे और सारी मेहनत व्यर्थ बरबाद हुई. सच्चाई यह है कि मान्यताप्राप्त संगठनों ने करोड़ों रुपए इस ड्रामेबाजी में खर्च किए जो कि इन्हें रेलकर्मचारियों ने बतौर चंदा दिया था. इस सबका नतीजा यह है कि रेलवे में दोनों फेडरेशन/यूनियन बरकरार हैं. मान्यताप्राप्त हैं और दोनों ही रेल मजदूरों का शोषण कर रही हैं. प्रशासन ने इस पूरी ड्रामेबाजी से रेल मजदूरों को न सिर्फ मजाक उड़ाया है बल्कि उन्हें बुरी तरह से मूर्ख भी बनाया है. निचले वर्ग के कर्मचारी को न तो अंदर की कहानी मालूम है और न ही वह 'एक संगठन' की थ्योरी को समझ पाया है. परंतु मान्यताप्राप्त संगठन इसे बखूबी समझ रहे हैं क्योंकि यदि यह सिद्धांत वास्तव में लागू हुआ होता और वास्तव में मजदूरों ने इसे समझ लिया होता तो यह निश्चित है कि उन्हें तमाम सुविधाओं और अपने साम्राज्य से बेदखल होना पड़ता, जिसमें से एक सांसद जैसी तमाम सुविधाएं शामिल हैं. मुफ्त घर, मुफ्त रेल प्रवास (और अब मजदूरों के पैसे से हवाई यात्रा भी), मुफ्त टेलीफोन, कार्यालय आदि-आदि.
रेलवे में अथवा देश के अन्य सभी क्षेत्रों में उपरोक्त स्थिति आज सिर्फ इसलिए है क्योंकि मजदूरों को 'मई दिवस' की महत्ता याद नहीं रह गई है और यह बलिदान इसलिए उनके दिमाग से पोंछ दिया गया है कि जिससे वह नेतृत्व के लिए चुनौती न बनें, जिस तरह सामान्य मतदाता को इस बात की चिंता नहीं होती कि उसके चुने हुए जनप्रतिनिधि क्या करते हैं, उसी तरह यूनियनों के सर्वसामान्य सदस्यों की भी वही स्थिति है, जो कि अंतत: उन्हीं के हितों पर कुठाराघात कर रही है. मेहनतकश मजदूरों जागृत रहो, आज जी-हुजूरी, चरणस्पर्श और अंधविश्वास का समय नहीं है. उन्हें वास्तविक चेहरों को पहचानना चाहिए.
(इस लेख के विचार लेखक के अपने हैं. उनके विचारों से 'रेलवे समाचार' का सहमत होना जरूरी नहीं है.)
No comments:
Post a Comment