Saturday 11 April, 2009


यात्रियों की दुर्दशा पर क्या
रेल प्रशासन ध्यान देगा ?
Kolkata : पांच वर्षों के दौरान भारतीय रेल ने 90,000 करोड़ रुपए का कथित लाभ कमाया है, जो कि अपने आप में एक अभूतपूर्व एवं प्रशंसनीय प्रयास कहा जा सकता है, परंतु वास्तविक प्रगति और मुनाफे में हुए इजाफे का प्रभाव आम यात्री के हितों की तरफ आता नहीं दिखता, जिससे जमीनी स्तर पर यात्रियों में निराशा है.
रेल प्रशासन का ध्यान गाडिय़ों के अंदर व्याप्त गंदगी, स्टेशनों की बदतर स्थिति, एसी कोचों के अंदर काक्रोचों का आंतक और चूहों की चहलकदमी, गाडिय़ों में यात्रियों को कम गुणवतता एवं कम मात्रा में दिया जा रहा बासी एवं खराब खाना और सबसे बढ़कर गंदे और कई बार प्रयोग किए जा चुके फटे-चीथड़े बेड रोल्स की तरफ नहीं जा रहा है. जबकि लोगों की आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए रेलवे द्वारा ईमानदार प्रयास किए जाने की आवश्यकता है. रेलों की कार्य संस्कृति में अभी बहुत सारे सुधार की जरूरत है. गाडिय़ों में रेल कर्मचारियों का अंग्रेजों की तरह का आचरण अभी भी देखकर काफी अफसोस होता है.
भारतीय रेल गाडिय़ों में सुरक्षा और संरक्षा भगवान भरोसे रहती है. रेलों में सुरक्षा के लिए लगाए गए लोग खुद अपना और अपने हथियारों की हिफाजत नहीं कर पाते हैं तो मुसाफिरों के जान-माल का क्या कहना.
राजधानी और शतादी एसप्रेस के कोचों की बदहाली का नमूना यह है कि रांची-हावड़ा शताब्दी एसप्रेस के कोच में वेटर ने खाना लगाया. यात्री ने ज्यों ही पहला निवाला उठाया, पूरा भोजन स्टैंड समेत नीचे गिर पड़ा. यात्री खाना तो नहीं खा पाया, उल्टे उसके पूरे कपड़े खराब हो गए. फिर यात्रियों के कहने पर उस यात्री को दुबारा खाना दिया गया और बड़ी मुश्किल से उसने खाना खाया. यह घटना इस प्रतिनिधि के समक्ष ही घटी.
हावड़ा-पुरी एसप्रेस (साप्ताहिक) हो या हावड़ा- गुवाहाटी सरायघाट जैसी महत्वपूर्ण गाडिय़ां, इनमें काक्रोचों का आतंक ऐसा है कि इनमें न तो यात्री चैन से खाना खा सकते हैं और न ही सो सकते हैं. क्योंकि सारी रात ये यात्रियों का खून चूसते हैं. उनके कानों में घुस जाते हैं. चूहों को तो मानो रेलवे ने ही पाल रखा है. कभी-कभी तो यात्रियों के बैग में बैठकर उनके घर तक चले आते हैं.
राजधानी एसप्रेस में प्रथम श्रेणी को छोड़कर ऊपरी स्तर पर अन्य श्रेणियों में यात्रा कर रहे यात्री यदि भोजन करते हैं तो उन्हें फूड पोइजनिंग के चांसेज 95 प्रतिशत रहते हैं. कभी-कभी तो काक्रोच जैसे मुत के आइटम सजी या दाल की शोभा बढ़ाते नजर आते हैं. ऐसे में इन्हें खाने पर एलर्जी और फूड ह्रश्ववाइजनिंग का खतरा शतप्रतिशत रहता है.
सामान्य गाडिय़ों में आम नागरिक, जो आबादी का लगभग 50 प्रतिशत से ज्यादा ही है, सिर्फ दो या तीन कोचों का हकदार हो पाता है, जिससे भीतर भूसे की तरह भरे हुए और चमगादड़ों की तरह दरवाजों से लटके लोग प्राय: बिजली के खभों और सिग्नल के पोलों से टकराकर जीवन मृत्यु की आंखमिचौली करते रहने को मजबूर हैं. क्या रेल प्रशासन रेलगाडिय़ों में आम यात्रियों के लिए सामान्य कोचों की बढ़ोतरी पर ध्यान देगा? रेल मंत्री जब अंतरिम रेल बजट संसद में प्रस्तुत कर रहे थे, उसी समय रेल दुर्घटनाएं घट रही थीं. यह महज संयोग भी हो सकता है. यह रेल मंत्री के भाग्य का असर है कि रेलों पर अपेक्षाकृत दुर्घटनाएं इन वर्षों में कुछ कम हुई हैं. परंतु इनकी रोकथाम हेतु कोई योजनाबद्ध कार्यक्रम नहीं लागू किया गया. दुर्घटनाएं कभी मानवीय भूल, कभी यांत्रिकी खराबी और कभी अन्य बाहरी कारकों के कारण हो जाएं तो आपदा प्रबंधन हमेशा भगवान और दुर्घटना स्थल के आसपास के लोगों के भरोसे रहता है. ये चाहें तो लोगों को लूटें या इनके जान-माल की हिफाजत करें. अव्वल तो कोई अधिकारी दुर्घटनास्थल पर जाना नहीं चाहता है. वह हमेशा कतराता है कि उसे न जाना पड़ा. यदि अधिकारी पहुंचे भी तो आपसी तालमेल और अनुशासन की कमी पूरे माहौल को और भी विपत्तिमाया बना देती है. अनधिकृत अधिकारी मीडिया से मुखातिब होकर अपनी मनमाफिक धारणा को उजागर करता है तो सत्य से कोसों दूर और रेलवे की छवि को धूमिल करता है.
इस प्रतिनिधि को जहां तक पता है स्पेशल रेलवे सेटी फंड से 'आपदा प्रबंधन संस्थान' खोलने हेतु वर्ष 2002- 03 के बजट में फंड एलाट हुआ था. लकिन अफसरशाही के निकमेपन के कारण आज तक ऐसे संस्थान कागज पर ही रह गए. आपदा प्रबंधन संस्थान की न तो स्थापना हुई न ही इसका कोई लाभ रेल को मिला.
रेलवे पुल, सुरंगें, पटरियां, कोचेज, वैगन इतने पुराने हैं कि विश्व की इस विशाल संस्था भारतीय रेल के लिए दुर्घटनाओं का सबब बन रहे हैं, ऐसे में मंत्री का ध्यान इधर भी जाना आवश्यक था. नये कारखाने खोले जाएं, नई तकनीकी को प्रचलित किया जाए परंतु धरोहरों की कीमत पर नहीं. इनकी देखरेख और पुनरुद्धार की तरफ भी ध्यान देना लाजिमी था. इस प्रतिनिधि ने स्वयं देखा है कि राजधानी-शतादी जैसी वीआईपी ट्रेनों में तो गंदे लिनन और घटिया गुणव एवं कम मात्रा में बासी खाना यात्रियों को परोसा ही जा रहा है, मगर सामान्य यात्री गाडिय़ों में तो हालात और भी बदतर हैं. निजामुद्दीन-भोपाल और भोपाललो कमान्य तिलक टर्मिनस जैसी प.म.रे. की तथाकथित आईएसओ ट्रेनों में भी गंदे लिनन दिए जा रहे हैं. लिनन के साथ तौलिया नहीं दिया जा रहा है. पूछने पर कोच अटेंडेंट कहता है कि तौलिाय कम है. यदि शिकायत करने की बात की जाती है तो अटेंडेंट साफ कहता है कि शिकायत का कोई फायदा नहीं होगा योंकि कांट्रेटर पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. यही स्थिति मुंबई-जबलपुर जनशतादी सहित ऐसी सभी ट्रेनों की भी है.
लास अपग्रेडेशन की व्यवस्था यात्रियों को ज्यादा बर्थ उपलध कराने के उद्देश्य से की गई थी, मगर यह व्यवस्था वास्तव में यात्रियों सहित ट्रेन स्टाफ के लिए भी भारी सिरदर्द साबित हो रही है, योंकि जिन यात्रियों का अपग्रेडेशन हो रहा है, वह अपनी मजबूरी के चलते वहां नहीं जा रहे हैं और जिन यात्रियों को अपग्रेडेड यात्री की जगह बर्थ दी जा रही है, वह उन्हें नहीं मिल पा रही है और न ही उसे अपग्रेडेड बर्थ पर भेजा जा सकता है.
इससे प्रतिदिन प्रत्येक ट्रेन में यात्रियों के बीच मारा-मारी, लड़ाई-झगड़ा हो रहा है. अपग्रेडेशन की इस व्यवस्था को तत्कालखत्म किए जाने की जरूरत है, योंकि अपग्रेडेड यात्री के न जाने से वहां की बर्थें खाली जा रही हैं, उन बर्थों की बुकिंग/एलॉटमेंट भी टीटीई नहीं कर सकता है. इससे रेलवे का भारी नुकसान भी हो रहा है.
साइड की तीसरी बर्थ को हटाने का आदेश हो चुका है, मगर इस पर अब तक अमल शुरू नहीं हुआ है. बल्कि बुकिंग/एलॉटमेंट अब भी जारी है, जबकि दक्षिण की ट्रेनों में इनका एलॉटमेंट बंद कर दिया गया है. कोई भी व्यवस्था शुरू करने के बाद भा.रे. इसका परीक्षण-आकलन करना जरूरी नहीं समझती है, जबकि यह आवश्यक है. अत: रेल प्रशासन को यात्रियों की उपरोक्त तमाम कठिनाइयों को अविलंब दूर करने के कदम उठाने चाहिए.
भारतीय रेल को विश्व की नंबर वन रेलवे बनाना है तो केवल ऊपरी स्तर पर नहीं, नीचे तह तक सुधार करके आम यात्री की सुख सुविधा को बढ़ाना होगा. रेल यात्रियों को रेल परिसर में आने पर एक सुखद अहसास हो, यात्रा आरामदायक हो, भाड़ा किफायती हो, समय की नियमितता हो, सुरक्षा और संरक्षा की विश्वसनीयता हो और यह सब पर्यावरण के अनुरूप हो, तब हमारा विश्व में नंबर वन का सपना साकार होगा.

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