Monday 11 January, 2010

वह चाहते तो हालात बदल सकते थे...!

सुरेश त्रिपाठी

मेंबर ट्रैफिक/रेलवे बोर्ड के पद पर विवेक सहाय की नियुक्ति के लिए जिस तरह पूरे सिस्टम को तोड़-मरोड़कर इसके लिए करोड़ों रुपए एवं बिरादरी सहित सीवीसी जैसी संस्था को किसी पालतू कुत्ते की तरह इस्तेमाल में लाया गया है, तथा बिरादरी का भरपूर उपयोग किया गया है, उसे देख कर इस उच्च स्तर पर जब यह हालात हैं तो फिर मायावती और राज ठाकरे का क्यों दोष दिया जाता है? जबकि जो सक्षम और ईमानदार लोग हैं, वह मूकदर्शक बने हुए हैं. रात के अंधेरे में फोन करके हालात का जायजा लेते हैं और दिन के उजाले में जाकर चोरों-चापलूसों को फूल-मालाएँ पहनाते नजर आते हैं. यह स्थिति न सिर्फ लोगों के मन में हीनभावना भर रही, बल्कि पूरे सिस्टम को भी चौपट कर रही है.

इस सारी दुव्र्यवस्था के लिए जो लोग वास्तव में जिम्मेदार हैं, वह चाहे प्रधानमंत्री हों, या रेलमंत्री हों, अथवा रेलवे बोर्ड और डीओपीटी, एसीसी, सीवीसी, पीएमओ वाले हों, सब कहीं न कहीं 'धृतराष्ट्र' की भूमिका में हैं जो कि कुछ खास लोगों और उनकी बिरादरी के खेल को या तो समझ नहीं पा रहे हैं अथवा उन्होंने भी स्वयं को इस खेल में शामिल कर लिया है, क्योंकि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में तो कोई यह बात नहीं मानेगा कि वह ऐसे किसी कुत्सित खेल में शामिल हैं, परंतु हालात जैसे बन गए हैं या बना दिए गए हैं, उससे यह संदेश मिल रहा है कि इस बिरादरी ने उनका इस्तेमाल कर लिया है. जिस तरह प्रधानमंत्री से विवेक सहाय का विजिलेंस क्लीयरेंस न होने के बावजूद उनसे 'सब्जेक्ट टू विजिलेंस क्लीयरेंस' की ऐतिहासिक टिप्पणी लिखवाई गई, उससे यह साफ जाहिर हो रहा है कि बिरादरी ने यह खेल किस उच्च स्तर पर खेला है. वरना जो प्रधानमंत्री पूर्व में यह घोषित कर चुका हो कि नौकरशाहों की वरिष्ठता और योग्यता एवं छवि को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए और जो स्वयं पूरी जिंदगी एक सक्षम व ईमानदार नौकरशाह रह चुके हों, उनसे ऐसे बचकाने निर्णय की उम्मीद तो कोई बेवकूफ या नासमझ व्यक्ति भी नहीं कर सकता था.

जहां तक रेलमंत्री ममता बनर्जी की बात है तो अब तक 6-7 महीने के उनके इस दूसरे कार्यकाल में उनकी कार्यप्रणाली से यह तो जाहिर ही हो चुका है कि वह एक सक्षम प्रशासक नहीं हैं बल्कि वह भ्रष्टाचार और बिरादरी के इस अत्यंत असभ्य खेल में कथित रूप से पूरी तरह शामिल हो गई हैं. जीएम/एनएफआर को हटाने जैसे एकाध उदाहरण प्रस्तुत करके अब वह इस आरोप से नहीं बच सकती हैं कि 'पार्टी फंड' इकट्ठा करने के लिए उन्होंने कुछ भ्रष्ट नौकरशाहों से हाथ नहीं मिलाया है.

अब वह यह कहकर भी नहीं बच सकती हैं कि उनके सामने कोई विकल्प नहीं था और दूसरे उपलब्ध विकल्प को वह एमटी बनाना नहीं चाहती थीं. यहां उन्हें हम यह बताना चाहेंगे कि जिसे वह दूसरा विकल्प कह रही हैं, वह (आर. एन. वर्मा) कम से कम उनके द्वारा चुने गए विकल्प (विवेक सहाय) से ज्यादा सक्षम एवं योग्य तथा ईमानदार हैं क्योंकि उन्होंने अब तक न तो सिस्टम को तोड़ा है और न ही कभी ऐसी कोई कोशिश करते नजर आये हैं. इसके अलावा उनके सामने कुलदीप चतुर्वेदी का सबसे मजबूत, बेदाग और सर्वथा सक्षम विकल्प उपलब्ध कराया था. इसलिए ममता बनर्जी का यह कहना कि उनके सामने दूसरा विकल्प नहीं था, सर्वथा झूठा और बेईमानी, बेशर्मी भरा बयान है. जबकि विवेक सहाय के बारे में इनमें से एक भी बात का दावा नहीं किया जा सकता है. इस अधिकारी ने अपनी पूरी सर्विस में सिर्फ और सिर्फ जोड़-तोड़ की है और जिसे चाहा है उसे पटाकर उससे अपने मन मुताबिक निर्णय करवाए हैं. इसने लगातार सिस्टम को तोड़ा और भ्रष्ट किया है.

ममता बनर्जी भी अब इसके खेल में शामिल होकर स्वयं के ईमानदार होने का दावा नहीं कर सकती हैं, क्योंकि यह सर्वज्ञात है कि अगले साल पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव होने हैं और वहां वह मुख्यमंत्री बनने का सपना पाले हुए हैं. इस सपने को साकार करने के लिए एक बड़ी धनराशि की जरूरत है, जिसका इंतजाम करने के लिए ही उन्होंने रेल मंत्रालय को जिद करके हासिल किया है, जिसमें हजारों करोड़ रुपए का पार्टी फंड बड़ी आसानी से बन जाता है. क्योंकि जिस भी नौकरशाह को उसकी मनचाही पोस्ट चाहिए वही कम से कम 10-20 लाख आसानी से दे देता है.

इसके अलावा हजारों की संख्या में माल लोडिंग कंपनियां और देशी-विदेशी कांट्रैक्टर फर्में हैं जो मेंबर के पद पर अपने मन मुताबिक अधिकारी को बैठाने के लिए सैकड़ों करोड़ रु. एडवांस में उसके उपर न्यौछावर करने से नहीं हिचकिचाती हैं. इस बार भी यही हुआ है. अब हमेशा की भांति करोड़ों रुपए एडवांस में न्यौछावर करने वाली लोडिंग कंपनियों को रेक आवंटन में वरीयता मिलेगी और कांट्रैक्टर फर्मों को सैकड़ों करोड़ के टेंडर देने के लिए उनके मन- मुताबिक टेंडर शेड्यूल बनाए जाएंगे और उन्हें उपकृत किया जाएगा.

ममता बनर्जी और लालू प्रसाद यादव में कोई फर्क नहीं रह गया है. लालू ने भी जिसे चाहा, वह चाहे कितना ही बड़ा चोर और चापलूस क्यों न रहा हो, उसे मेंबर के पद पर बैठाया, फिर चाहे उसके लिए उन्हें संबंधित मेंबर की पोस्ट को 8-10 महीने तक खाली ही क्यों न रखना पड़ा हो. मगर इस मामले में ममता बनर्जी तो लालू से भी दम कदम आगे निकल गई हैं. लालू ने तो कम से कम पोस्ट खाली रखी, यहां तक कि सीआरबी की सवोच्च पोस्ट भी शायद पहली बार एक महीने से ज्यादा खाली रही जबकि एमएल और एफसी के पद 8 से 10 महीनों तक खाली रखे गए थे और अंतत: उन पर अपने मुताबिक अधिकारियों को लाकर ही लालू ने उनसे बजट आंकड़ों में तमाम हेराफेरी करवाई थी.

मगर ममता तो अपनी ही बात पर अडिग नहीं हैं. जहां समान अपराध के लिए अशोक गुप्ता, आशुतोष स्वामी और बी. एम. सिंहदेव मीणा के खिलाफ सीबीआई कार्रवाई हुई है, वहीं ठीक वैसे ही आरोपों के लिए विवेक सहाय को न सिर्फ उन्होंने बख्श दिया है, बल्कि पुरस्कृत/उपकृत करते हुए उन्हें मेंबर ट्रैफिक के पद पर बैठा दिया है, जबकि महाप्रबंधक कोटे में की गई अवैध भर्तियों की सीबीआई जांच की उन्होंने ही सार्वजनिक घोषणा की है और विवेक सहाय का आंकड़ा इन भर्तियों में सबसे ज्यादा है.

इससे जाहिर होता है कि ममता बनर्जी इस बिरादरी के भ्रष्ट खेल में पूरी तरह शामिल हो गई हैं. अब वह यह कहकर नहीं बच सकती हैं कि उन्हें विवेक सहाय की असलियत से अनजान रखा गया, क्योंकि ऐसे तमाम पत्र उन्हें पहले ही भेजे गए हैं. यह दावा तो अब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी करके नहीं बच सकते हैं, क्योंकि उन्हें तो तमाम वस्तुस्थिति और ब्यूरोक्रेटिक जोड़-तोड़ से लगातार अवगत कराया जाता रहा है।

अब जहां तक सीवीसी और रेलवे बोर्ड विजिलेंस की भूमिका की बात है तो इन दोनों की ही हैसियत क्रमश: भारत सरकार और रेल मंत्रालय के पालतू कुत्तों से ज्यादा कुछ नहीं हैं क्योंकि इनका यही इस्तेमाल किया जा रहा है. प्रधानमंत्री द्वारा विवेक सहाय के लिए जैसे ही 'सब्जेक्ट टू विजिलेंस क्लीयरेंस' की टिप्पणी के साथ यह फाइल वापस आई, उसे रेलमंत्री को दिखाने और उनकी संस्तुति लेने के लिए तुरंत कोलकाता भेज दिया गया. उनसे संस्तुति लेकर यह फाइल वापस आई तो बिरादरी की पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार रेलवे बोर्ड और सीवीसी कार्यालय खुलवाए गए, संबंधित कर्मचारियों को बुलाया गया. यहां ध्यान देने की बात है कि 25 दिसंबर से 28 दिसंबर तक लगातार राष्ट्रीय अवकाश था. तथापि एक अधिकारी के शब्दों में 'जब रेलवे की सारी ब्यूरोक्रेसी सो रही थी तब एक अकेले विवेक सहाय जाग रहे थे...!

वास्तव में यही सच है, क्योंकि प्रधानमंत्री की टिप्पणी के मद्देनजर सीवीसी का क्लीयरेंस लिया जाना आवश्यक था. इसलिए उन्होंने वहां सीवीसी के रूप में बैठे अपने 'बिरादरी भाई' प्रत्यूष सिन्हा से विदेश में संपर्क साधा, जो कि 4 जनवरी तक आफिशियल खर्चे पर विदेश में नववर्ष की मौजमस्ती के लिए गए हुए हैं. उनसे बात 'तय' हो जाने के बाद ही सीवीसी में 28 दिसंबर को मोहर्रम के अवकाश के दिन एक नोट बनाकर विदेश में फैक्स करवाया गया और उस नोट को विदेश से अप्रूव करके प्रत्यूष सिन्हा ने अपने बिरादरी धर्म का निर्वाह किया तथा हाथों-हाथ विवेक सहाय का विजिलेंस क्लीयरेंस रेलवे बोर्ड को हासिल हो गया. इधर रेलवे बोर्ड में उ.म.रे. इलाहाबाद से एक एपीओ को रविवार, 27 दिसंबर को ही बुला लिया गया था और लगातार पूरी चार दिन की छुट्टी के दरम्यान तमाम माथापच्ची करके रे.बो. विजिलेंस ने सारा कुछ क्लीयर कर दिया. तब 28 दिसंबर को मोहर्रम की छुट्टी के दिन शाम को 8.30 बजे विवेक सहाय को एमटी बनाने के आदेश रेलवे बोर्ड ने निकाल दिए और वहीं बैठे सहाय को देकर उन्हें तुरंत ज्वाइन करा दिया. विवेक सहाय की पूर्व दैयारी के अनुरूप उधर उनके आर्डर जारी हो रहे थे, इधर उनके नाम की तख्ती एमटी के चेंबर के बाहर ठोंकी जा रही थी.

इस सारे घटनाक्रम को जिस तेजी से विवेक सहाय एवं उनकी बिरादरी ने अंजाम दिया उसी तेजी से रेलवे की समस्त ब्यूरोक्रेसी का दिमाग भी घूम गया. यह खबर लगते ही उनकी सर्वप्रथम प्रतिक्रिया यही थी कि 'भूतो न भविष्यति' यानी ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि किसी मंत्री या अधिकारी को इतनी जल्दी रही हो और ऐसा शायद अब आगे होगा भी नहीं. पूरे घटनाक्रम को एक नजर में देखें कि 5-6 दिसंबर को एक वैवाहिक कार्यक्रम के मौके पर पूरी बिरादरी का दबाव विवेक सहाय या बिरादरी के फेवर के लिए एमटी श्रीप्रकाश पर डाला जाता है, इसके तत्काल बाद तथाकथित हाई पावर कमेटी (एचपीसी) का गठन होता है और श्रीप्रकाश को उसका भावी चेयरमैन घोषित कर दिया जाता है. 8 दिसंबर को तत्संबंधी खबर दिल्ली के अखबारों में प्रकाशित होती है. 9 दिसंबर की शाम को ममता बनर्जी कैबिनेट की मीटिंग में अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार संसद से सीधे जाने के बजाय 6.30 बजे शाम को सीधे रेल भवन आती हैं और श्रीप्रकाश द्वारा ली गई स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) के पेपर साइन करती हैं. उधर वह कैबिनेट की मीटिंग में जाती हैं, इधर श्रीप्रकाश एमटी का पदभार छोड़कर एकतरफ विवेक सहाय या बिरादरी का रास्ता साफ करते हैं और दूसरी तरफ एचपीसी के चेयरमैन का पद भार ग्रहण करके सेवा में बने रहते हैं. तत्पश्चात 10-11 दिसंबर को सारी कवायद पूरी करके 11 दिसंबर को एमटी पैनल की फाइल को विवेक सहाय के लिए ममता बनर्जी की विशेष संस्तुति के साथ शाम 7.30 बजे पीएमओ पहुंचा दिया जाता है. वहां भी नीचे स्तर से तुरंत क्लीयर होकर यह फाइल चीफ कैबिनेट सेक्रेटरी (सीसीएस) तक पहुंच जाती है. इन दोनों को 'मैनेज' कर लिया तो यह तो प्रधानमंत्री को 'मैनेज' करने (समझाने) में सक्षम हैं ही.

परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री ने 24 दिसंबर को
कमोबेश अपनी गरिमा को ध्यान में रखते हुए ऐतिहासिक रूप से 'सब्जेक्ट टू विजिलेंस क्लीयरेंस' की टिप्पणी के साथ फाइल क्लीयर कर दी. पीएम की टेबल पर हुई कुछ दिनों की देरी का कारण वह कुछ पत्र बताए गए हैं जो पीएम को इसी दरम्यान फैक्स और ईमेल से भेजे गए थे. परंतु उन पत्रों में दिए गए तथ्यों के बारे में पीएम को भी गुमराह करने में यह पूरी बिरादरी लॉबी कामयाब रही है. यहां तक कि एक पूर्व सीसीएस ने भी पीएम को तमाम वस्तुस्थिति और जोड़-तोड़ से अवगत करवाया था. परंतु उसका भी कोई प्रभाव पीएम पर नहीं पड़ा. इसके बाद का सारा घटनाक्रम तो ऊपर उल्लेखित ही है.

ममता बनर्जी, श्रीप्रकाश, सीआरबी एसएस खुराना, सेक्रेटरी/रे.बो. केबीएल मित्तल, प्रभारी रे.बो. विजिलेंस, ईडीपीजी जे. के. साहा, ओएसडी/एमआर गौतम सान्याल, सीवीसी प्रत्यूष सिन्हा आदि का भले ही कोई नुकसान न हुआ हो मगर इस सारी प्रक्रिया में 'सिस्टम' का बहुत नुकसान हो चुका है. अपुष्ट खबरों के मुताबिक इनमें से प्रत्येक को उनकी हैसियत के मुताबिक करोड़ों की कीमत चुकाई गई है. क्योंकि सार्वजनिक मान्यतानुरूप आजकल कोई भी सरकारी बाबू और राजनीतिज्ञ मुफ्त में किसी की कटी उंगली में पेशाब करने को भी तैयार नहीं होता, कहने का मतलब है कि मुफ्त में कोई काम नहीं करता, परंतु इन सबकी बदौलत पूरी व्यवस्था को जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई अब सुप्रीम कोर्ट से ही हो पाएगी. इसलिए शायद कहा गया है कि....

वह चाहते तो हालात बदल सकते थे।
शरीफ लोग मगर दब गए 'कमीने' से।।

इसी तर्ज पर एक अधिकारी ने बड़े तंज स्वर में यह कहकर अपनी प्रतिक्रिया दी कि-

इस दौर-ए-मुंसिफी में जरूरी नहीं वसीम।
जिस सख्श की खता हो, उसी को सजा मिले।।

यानी इस अधिकारी के मंतव्य के मुताबिक अब सजा के हकदार सिर्फ विवेक सहाय ही नहीं बल्कि वह लोग भी है्ं जिन्होंने जानबूझकर उनके हक में पूरी व्यवस्था को चौपट किया है. जबकि एक अन्य अधिकारी ने विवेक सहाय और उनके स्वभाव के बारे में सुप्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियों का उद्धरण देते हुए अपनी प्रतिक्रिया कुछ इन शब्दों में व्यक्त ही है कि...

बाहर से तो देवता सदृश दिखता है।
लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है।।
जिस पापी को गुण नहीं 'गोत्र' प्यारा है।
समझो उसने ही हमें यहां मारा है।।

इस अधिकारी ने विवेक सहाय की तमाम खूबियों और गोत्र के संदर्भ में 'बिरादरी' को भी उजागर किया है. इसने पहली दो पंक्तियों में उनके दिखावे और बंद कमरे में उनके क्रूरतापूर्ण बर्ताव को भी सार्वजनिक कर दिया है. उसने यह भी कह दिया है कि उन्हें गुण यानी किसी की योग्यता और काम से कोई मतलब नहीं है उन्हें तो अपना गोत्र (बिरादरी) ही चाहिए. यह भी कहा है कि जिसमें इतनी सारी खूबियां हैं, समझ लो उसी ने 'हमें मारा' यानी तमाम
सिस्टम का सत्यानाश किया है. जबकि मानसिक रूप से डांवाडोल विवेक सहाय के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए एक अन्य अधिकारी ने कुछ इस प्रकार अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है-

कहते हैं जब संक्रांति काल होता है।
तो सारी लपटों का रंग लाल होता है।।

अपनी इच्छाओं को काबू में रखिए।
वरना आपके ये शौक गुनाहों में बदल जाएंगे।।

काश, इस अधिकारी ने विवेक सहाय को यह सलाह रेलवे में उनके शैशव काल (एओएम/एसओएम/सीनियर डीओएम के समय) में दी होती तो शायद आज वे पद एवं अधिकार के मद में उसका दुरुपयोग करना न सीखते और मानसिक विक्षिप्तता से भी बच जाते. इस अधिकारी का मंतव्य शायद यह कहना भी था कि यदि विवेक सहाय के ये कृत्य (गुनाह) न होते तो उनकी सजा उनके परिवार को न भुगतनी पड़ती, जबकि यहां तो ऐसे उदाहरण भी मौजूद हैं जहां दूसरों के किए की सजा भी किसी और को भुगतनी पड़ी है. इन प्रतिक्रियाओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कुछ अपवादों को छोड़कर रेलवे की तमाम ब्यूरोक्रेसी विवेक सहाय के स्वभाव से वाकिफ है और ममता बनर्जी का उन्हें आनन-फानन में एमटी बनाने का फैसला हजम नहीं हुआ है.

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