Monday 11 January, 2010

प्रेरक प्रसंग
कुछ खट्टी-कुछ मीठी
के. हसन
मेम साब बहुत नाराज थीं, क्योंकि उस दिन उनके बंगला प्यून ने घर का कोई काम नहीं किया था, न बर्तन मांजे थे, न कपड़े धोए थे और न ही झाड़ू पोंछा लगाया था. क्योंकि उसकी पत्नी की तबियत उस दिन अचानक काफी खराब हो गई थी. वैसे वह कुछ दिनों से बीमार थी, मगर डॉक्टर से दवा दिलाकर वह बंगले में काम पर चला जाता था. जहां से उसे रात के खाने और बर्तन धोने तथा बाकी साफ-सफाई के बाद ही फुर्सत मिल पाती थी. इस दिनचर्या से वह अपनी पत्नी की न तो उचित देखभाल कर पा रहा था और न ही किसी अच्छे डॉक्टर के पास दिखाने ले जा पा रहा था.

'साहब' रेलवे के इंजीनियरिंग विभाग में एक बड़े अधिकारी थे. उस दिन मेमसाब ने उनसे बंगला प्यून की खूब शिकायत की. यह सुनकर और मेमसाब का गुस्सा देखकर निहायत सादा जीवन व्यतीत करने वाले बेचारे साहब बड़े आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने बड़ी शांति के साथ मेमसाब से कहा- 'यह सब तो बंगला प्यून का काम नहीं है?' साहब का इशारा बंगला प्यून से घर में कराए जा रहे विभिन्न कामों की तरफ था.

'आप ही ने सबको बिगाड़ रखा है...' मेमसाब थोड़ा और बिफर पड़ीं और कहा- 'हमने इन्हें आउट हाउस भी दे रखा है. फिर भी यह कोई काम ठीक से नहीं करते.' मेमसाब लगभग गरज पड़ीं और कहा- 'सभी अफसरों के घरों में यही लोग सारा काम करते हैं. हमारे यहां ही सिर्फ आपने इन्हें सिर पर चढ़ा रखा है...!'

साहब क्या कहते, मेमसाब का रौद्र रूप देखकर एकदम चुप हो गए और कर भी क्या कर सकते थे. दोपहर को खाने के बाद उन्होंने बंगला प्यून को बुलवाया. इस बुलावे पर उसकी तो रूह कांप रही थी और यह सोचकर उसकी जान निकली जा रही थी कि इस मुसीबत के समय आज अगर साहब ने नौकरी से निकाल दिया तो उसका और उसके
परिवार का क्या होगा. डरते-डरते वह साहब के सामने पहुंचा. साहब को शांत देखकर उसे थोड़ी सी राहत महसूस हुई. साहब ने धीरे-धीरे सारी जानकारी उससे ली. वह घर पर क्या-क्या काम करता है. सब कुछ सच-सच साहब को बता दिया.

हालांकि साहब को उसकी इस बंधुआ मजदूरी का थोड़ा-बहुत अहसास पहले से था, परंतु उससे जो पूरी जानकारी मिली, उससे वह बुरी तरह सन्न रह गए, कहा- 'तुमने कभी बताया नहीं कि ऐसा भी होता है. तुम्हें यह सब भी करना और सुनना पड़ता है.'

बंगला प्यून को साहब का व्यवहार देखकर अब तक काफी तसल्ली हो चुकी थी कि उसकी नौकरी को फिलहाल शायद कोई खतरा नहीं है. गिड़गिड़ाते हुए बोला- 'सरकार यह व्यवस्था तो बरसों से चली आ रही है. कोई नई बात तो थी नहीं, जो आपको बताता....'

साहब बोले- 'इस अतिरिक्त काम का हम अपनी जेब से अपनी तरफ से अलग से तुम्हें भुगतान करेंगे.' साहब से इतना सुनते ही बंगला प्यून बुरी तरह से घबरा गया. कांपते हुए कहने लगा- 'सरकार यह क्या जुल्म कर रहे हैं. नहीं सरकार, ऐसा नहीं हो सकता, वरना मैं तो जीते-जी मर जाऊंगा.'

'कितने बच्चे हैं तुम्हारे...' साहब ने पूछा? बंगला प्यून उसी कांपती आवाज में बोला- दो.

'क्या करते हैं...' साहब ने फिर पूछा.

'लड़का बड़ा है, आठवीं में पढ़ता है. लड़की छोटी है, वह 6वीं में पढऩे जाती है...' बंगला प्यून ने जवाब दिया.

'दोनों बच्चों को आज रात 8 बजे मेरे पास अंदर भेजो. मैं उन्हें आज से ट्यूशन दूंगा. मैं भी तो अपना कुछ कर्तव्य निभाऊं.' साहब ने अपने उसी शांत स्वभाव में उसे अपना आदेश सुना दिया. जैसे ही उनकी यह बात बंगला प्यून की समझ में आई, वह कुछ संकोच के साथ खुश हो गया.

यह सिलसिला साहब के दूसरी जगह ट्रांसफर होने तक कई साल तक चलता रहा. अंतत: यही 'साहब' चेयरमैन, रेलवे बोर्ड के एकमात्र सर्वोच्च पद से सेवानिवृत्त हुए, जिनकी सज्जनता की मिसाल आज भी रेलवे बोर्ड में दी जाती
है. परंतु आज ऐसी कोई मिसाल भारतीय रेल में ढूंढे से भी न मिले. यहां तो आज मानव संसाधन के दुरुपयोग की होड़ सी लगी हुई दिखाई देती है. ऐसा लगता है कि मानवीय गरिमा और नैतिकतात का कहीं लोप हो गया है. तथापि ऐसी मिसालें होंगी अवश्य, क्योंकि यदि इनका एकदम से लोप हो गया होता, तो शायद अब तक पूरी व्यवस्था ही धराशायी हो गई होती.

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