Thursday 30 June, 2011



विवेक सहाय की विदाई 

अंततः विवेक सहाय की रेलवे से विदाई हो ही गई. हालांकि वह अंत तक इस जुगाड़ में रहे कि उन्हें या तो सेवा विस्तार मिल जाएगा या फिर किसी अन्य सरकारी संस्थान में प्रतिनियुक्ति मिल जाएगी अथवा रेल भवन के प्रवेश द्वार पर सीढ़ियों के या सामने रखे रेल इंजन के पास कम से कम एक स्टूल डालकर बैठने की सुविधा तो अवश्य ही मिल जाएगी, मगर इनमें से उनकी कोई अभिलाषा अंततः पूरी नहीं हो पाई और साढ़े चार बजे रेल भवन के दूसरे माले पर स्थित सम्मलेन कक्ष में रेल राज्य मंत्री के. एच. मुनियप्पा ने उन्हें सूखी-सूखी विदाई देकर रेल भवन से विदा कर दिया और कुछ लोग उन्हें रेल भवन के सामने स्थित चौराहे को पार कराकर दूर तक इसलिए छोड़ आए कि कहीं वे फिर से न आकर सीआरबी की कुर्सी पर बैठ जाएँ...

आज रेल भवन में यह चर्चा बड़ी जोर से थी की विदाई के समय सम्मलेन कक्ष में रेलवे बोर्ड का कहीं कोई चपरासी श्री सहाय पर अपना फटा-पुराना जूता या चप्पल न फेंक दे, इसलिए यह नजारा देखने की उत्सुकता में सम्मलेन कक्ष में विदाई के समय आज अन्य तारीखों की अपेक्षा काफी भीड़ थी. बहरहाल ऐसा कुछ नहीं हुआ और लागों को निराश लौटना पड़ा. 

'रेलवे समाचार' ने सहाय को विदाई किस तरह और कैसे दी जानी चाहिए, इस पर अपनी वेब साईट पर ई-मेल, एसएम्एस और फोन के जरिए रेल कर्मियों की प्रतिक्रिया मांगी थी. इनमे से सबसे पहले एक रेलकर्मी की जो प्रतिक्रिया एसएम्एस के जरिए आई है वह इस प्रकार है.. "जूतों की माला पहनानी चाहिए, ये अंग्रेजों की औलाद रेल-बहादुर पहले देश और देशवासियों को बेवकूफ बनाते थे, अब समझते हैं..!!" श्री सहाय से बुरी तरह खुन्नस खाए इस रेलकर्मी की इस प्रतिक्रिया में कुछ शब्द गालियों के भी हैं जिन्हें भाषा की गरिमा को ध्यान में रखते हुए निकाल दिया गया है, आशा है कि यह रेलकर्मी इस बात को समझकर अपनी खुन्नस को यहीं दबा लेगा. 

एक अन्य रेलकर्मी ने अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से दी.."श्री सहाय की एमटी और सीआरबी के पदों पर अवैध नियुक्ति को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल की गई 'रेलवे समाचार' की जनहित याचिका के बाद हमने 'रेलवे समाचार' के पिछले दो अंक पढ़े, जिनसे रेलवे बोर्ड में चलने वाली हाई प्रोफाइल तिकड़मबाजी के बारे में पता चला. दोनों अंक बहुत ही बढ़िया अंदाज में प्रस्तुत किए गए हैं. यह सब जानकार तो यही कहना पड़ेगा कि सहाय को बिना किसी सम्मान या औपचारिकता के ही विदा कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने रेलवे की व्यवस्था को बहुत नुकसान पहुँचाया है..!"

एक रेल अधिकारी और सहाय के काफी 'अजीज' रहे अजीत सक्सेना से जब इस बारे में उनकी राय मांगी गई तो उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के तड से एक शेर सुना दिया, जो इस प्रकार है..
"मेरी निगाह में वो शख्स आदमी भी नहीं..!
जिसे लगा था ज़माना खुदा बनाने में...!!
इस एक शेर से तो सामान्य रेल कर्मचारियों की समझ में आपकी राय कुछ ख़ास नहीं आएगी, यह कहकर जब उन्हें और कुरेदा गया, तो उन्होंने लगे हाथ एक शेर और दाग दिया..
"दोज़ख के इंतज़ाम में उलझा था रात-दिन...!
दावा यह कर रहा था कि ज़न्नत में जाएगा...!!"
यह दूसरा शेर कहकर श्री सक्सेना ने फोन कुछ इस तरह काट दिया कि ऐसा लगा कि उन्होंने सहाय के प्रति अपनी सारी कड़वाहट रिसीवर को क्रेडल पर पटक कर निकाल दी है..

श्री सहाय के सताए हुए और रेलवे को छोड़कर जा चुके कई अधिकारियों ने अपना नाम न देने की शर्त पर कहा कि 'ये शख्स किसी इज्जत के लायक नहीं था, फाइनली इससे रेलवे का पिंड छूट गया, अब रेलवे की प्रगति की कुछ उम्मीद की जा सकती है.' कुछ और उदगार व्यक्त करने के लिए कहने पर उनका कहना था कि 'इस व्यक्ति ने अपने निजी हित की खातिर रेलवे में गलत परम्पराएं डालीं, सारे स्थापित नियमों का उल्लंघन किया, योग्य और कर्त्तव्यनिष्ठ रेल अधिकारियों को दरकिनार किया, उनका काफी उत्पीड़न किया, जिससे कई योग्य एवं ईमानदार रेल अधिकारी न सिर्फ अवसादग्रस्त हुए बल्कि रेलवे को छोड़कर जाने के लिए मजबूर हो गए.'

इसके अलावा अन्य बहुत से रेलकर्मियों ने भी अपनी बेबाक राय भेजी है मगर वह सब इतनी ज्यादा असंवैधानिक भाषा में हैं कि उन्हें सम्पादित करके भी प्रस्तुत कर पाना मुश्किल हो रहा है. हमारा मानना है कि उपरोक्त प्रस्तुत प्रतिनिधि प्रतिक्रियाएं भी काफी हैं, जिनसे कम से कम श्री सहाय को अब यह समझ लेना चाहिए कि उनकी कारगुजारियों के परिप्रेक्ष्य में रेलवे के करीब 13.50 लाख कर्मचारी उनसे कितनी नफ़रत करने लगे थे. इसलिए 'रेलवे समाचार' उनके स्वस्थ और दीर्घ जीवी होने की कामना करते हुए अपनी राय में उन्हें सिर्फ एक शेर समर्पित कर रहा है...
"संजीदगी से अब कोई तामीरी काम कर...!
कब तक यूँ ही हवा में पतंगें उड़ाएगा...!!"

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