Sunday 1 April, 2012


'कक्कू भाई' तय करते हैं निर्माण संगठन की कार्य-प्रणाली 

साल भर बाद तीन लाइनें ओपन लाइन को सुपुर्द 

हाजीपुर : पू. म. रे. निर्माण संगठन में जातिगत आधार और जातिगत जुगाड़ तथा अपने रिश्तेदारों को ठेकेदार बनाना या किसी अन्य ठेकेदार के नाम पर कार्य देना अथवा ठेकेदार के निर्देश पर वरिष्ठ अधिकारियों और अधीनस्थ कर्मचारियों की पोस्टिंग करना, उनका स्थानान्तरण कर देना, अगर ठेकेदार को गलत या मनचाहा बिल, यदि काम नहीं किया है तो भी, नहीं देना, बहुत बड़ा गुनाह माना जाता है. वर्तमान माहौल में पू. म. रेल के इंजीनियरिंग विभाग में रेल का हित सोचना भी बहुत बड़ा गुनाह है. इसके विपरीत यदि आप ठेकेदार को नमस्ते करते हैं और उसकी हर बात मानते हैं, उसको मनचाहा बिल बनाकर देते हैं, तो आपकी मनचाही पोस्टिंग और महाप्रबंधक अवार्ड तय है. और अगर आपने ठेकेदार की बात नहीं मानी है और रेल हित में रात-दिन एक करके मानक कार्य पूरा किया है, तो भी आपको किसी न बहाने से चार्जशीट मिलना तय है. यदि फिर भी आप पर चढ़ा रेल हित का बुखार नहीं उतरा, तो आपको दंड मिलना निश्चित है. कर्मचारियों का तो यहाँ तक कहना है कि सच तो यह है कि वर्तमान में कुछ खास ठेकेदार ही पू. म. रेलवे निर्माण संगठन को चला रहे हैं और जिसकी सामत आई हो वह इन ठेकेदारों के आदेश को नहीं माने खास कर 'कक्कू भाई' का.. 

कर्मचारियों का कहना है कि कक्कू भाई की इतनी पहुँच है कि वह बिना रेल का निर्धारित काम पूरा किये ही वर्क कम्प्लीशन प्रमाण पत्र ले लेता है और फिर उसी आधार पर नया टेंडर भी हथिया लेता है. महाप्रबंधक अवार्ड किसे मिलना है, यह भी वही तय कर देता, मंडल का डीईएन और सीनियर डीईएन/को-आर्डिनेशन किसे बनना है, डिप्टी सीई/सी किसको बनाना है और किसको कहाँ रखना या फिट करना है, कौन कितना बिना काम का भुगतान इन्हें कर सकता है, यह भी कक्कू भाई ही तय कर लेते हैं. इसका कारण यह बताया जाता है कि चूँकि अधिकारियों की पार्टियों को रंगीन बनाने और उनके साथ उनके घरों पर उठने-बैठने और वहां की भी सभी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखने का अधिकार कुछ खास अधिकारियों ने कक्कू भाई को ही सौंप रखा है. कुछ कर्मचारी भी साहब लोगों को घर-पहुँच सेवा उपलब्ध कराते हैं, वह इसकी बखान अन्य अधिकारियों से प्रतिदिन करते हैं, इसलिए वे भी मनचाही पोस्टिंग पाने की उम्मीद में कक्कू भाई को लगभग जबरन अपने चेम्बर में बुला-बुलाकर चाय पिलाते हैं, स्थिति यह है कि कक्कू भाई को खुश रखने की अधकारियों और कर्मचारियों में यहाँ होड़ मची रहती है. 

इसीलिए कक्कू भाई सभी अधिकारियों और कर्मचारियों के सामने खुले शब्दों में कहते हैं, "देखिएगा दो अप्रैल को मेरे निजी फंक्शन में सभी अधिकारी और कर्मचारी किस तरह पहुंचेंगे, जिसकी सामत आई हो वह हमसे रेल हित की बाते करे...!" करार के अनुसार ट्रेक का ठेकेदार के द्वारा पेकिंग कार्य पूरा नहीं किया जाना और ट्रेक निर्माण के काम में रेलवे की पैकिंग मशीन का उपयोग रेलवे के खर्च पर करना और बाद में इस कार्य का बिल भुगतान ठेकेदार के नाम पर करके यहाँ रेलवे को भरपूर चूना लगाया जा रहा है... कर्मचारियों का कहना है कि लालू राज के ख़त्म हो जाने के बावजूद पू. म. रे. निर्माण संगठन में इन तमाम नियम विरुद्ध प्रथाओं का लगातार जारी रहना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और रेलवे के मानक निर्माण कार्य में बहुत बड़ी रुकावट है. इसकी जितनी निंदा की जाये वह कम है. उनका कहना है कि जब खुद डिप्टी चीफ ही अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की सच्चाई को, दिन रात की उनकी मेहनत, लगन और कार्य के प्रति उनकी सतर्कता को मुख्य प्रशासनिक अधिकारी/निर्माण (सीएओ/सी) की जानकारी में नहीं लायेगा, तो यह सच्चाई सबके सामने कैसे आएगी? डिप्टी चीफ के केवल यह कहने, कि ठेकेदार ऐसा करवा रहा है, मैं क्या कर सकता हूं, से तो काम नहीं चलने वाला है. 

कर्मचारियों का कहना है कि बिना जोनल ट्रेनिंग पास किए अनट्रेंड निरीक्षक (एसई/एसएसई/ट्रेक एंड वर्क्स) ही मानक काम करवा सकता है और ठेकेदार को मनचाहा बिल भी दे सकता है, यह सब तो डिप्टी सहित अन्य सभी निर्माण अधिकारियों को मालूम ही है, तब हम कैसे उन्हें इस नियम से अवगत करवाएं कि रेलवे में जोनल ट्रेनिंग के 6 महीने के कोर्स को पास करना जरुरी होता है, और अगर कोई कर्मचारी यह ट्रेनिंग दो बार में पास नहीं कर पाता है, तो उसे रेल सेवा से मुअत्तल कर दिया जाता है. इसका मतलब यह है कि जिस भी कर्मचारी ने अब तक इस जोनल ट्रेनिंग को पास नहीं किया है, वह रेलवे का स्थाई कर्मचारी नहीं है. इस परिप्रेक्ष्य में पू. म. रे. निर्माण संगठन के तमाम कर्मचारी पूर्व में यहाँ डिप्टी सीई/सी रहे श्री मनोज गर्ग, चीफ इंजिनियर रहे श्री दिनेश और मुख्य प्रशासनिक अधिकारी/निर्माण रहे श्री सुबोध जैन को याद करते हैं, मगर इन अधिकारियों द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के रेल हित में समर्पित कार्य को सही ठहराकर उनका मनोबल बढ़ाने के दिन अब यहाँ लद गए हैं. 

कर्मचारियों का कहना है कि किसी ठेकेदार की बात न मानना, बिना डर और दबाब के सही निर्णय रेल निर्माण हित में करना, अब पू. म. रेलवे के वर्तमान माहौल में यह सब सोचना भी अपराध हो गया है. यहाँ तो जो कक्कू जी चाहेंगे, वही होगा. वह कहते और मानते भी हैं कि वे भी अब सभी कर्मचारियों और अधिकारियों को यह नेक सलाह देते हैं कि वे भी कक्कू जी की ही जय बोलें.. लेकिन उनका यह भी कहना है कि कक्कू जी उनका स्वाभिमान और आत्म सम्मान नहीं खरीद सकते हैं, जैसा कि उन्होंने निर्माण अधिकारियों का खरीद करके किया है.. उनका कहना है कि व्यवस्था में देर है, अंधेर नहीं, और बहुत जल्दी ही उनके साथ भी न्याय होगा. रेल प्रशासन अँधा-बहरा ही सही, और सच्चाई भले ही कुछ देर के लिए छिप जाए, मगर परास्त नहीं होती. उन्हें कक्कू भाई के माध्यम से सहायक अभियंता नहीं बनना है और न ही मनचाही पोस्टिंग करवानी है, इसलिए वे सही बिल एक मिनट में बनाकर देने के लिए हमेशा तैयार हैं, मगर गलत बिल भुगतान कभी नहीं करेंगे. इसके लिए सम्बंधित अधिकारी भले ही जितना चाहें उन्हें प्रताड़ित कर लें, इन कर्मचारियों का यह भी मानना है कि समय परिवर्तनशील होता है, यह सम्बंधित अधिकारियों को नहीं भूलना चाहिए. 

इस सम्बन्ध में पू. म. रे. निर्माण संगठन का कोई भी अधिकारी 'रेलवे समाचार' के सवालों का जवाब देने को तैयार नहीं है. यहाँ तक कि एसएमएस का जवाब देना भी अब उनक शान के खिलाफ हो गया है. तथापि यह समझ में नहीं आ रहा है कि जब रेलवे से स्टोन बलास्ट लाई जाती है तो रेलवे को प्रति रेक 18 लाख रु. का मालभाड़ा मिलता है, मजबूत, अच्छी और गुणवत्तापूर्ण बलास्ट प्राप्त होती है, इससे बलास्ट की छीजन भी नियंत्रित होती है, लेबर कास्ट की बचत होती है और मटीरियल ट्रेन के रोलिंग होने से नए ट्रेक का कंसोलिडेशन भी हो जाता है, जब यह सभी फायदे रेलहित में होते हैं, तब यदि किसी भी कारण से कोई वैगन या कोई मटीरियल ट्रेन ही डिरेल हो जाती है, जो कि स्वाभाविक भी है, ऐसे में काम करवाने वाले कर्मचारियों को डीएआर कार्रवाई से मुक्त रखा जाता है, यही न्यायसंगत परंपरा पू. म. रे. में भी अब तक चल रही थी. 

इसके अलावा जिस तरह किसी एसई-एसएसई/वर्क्स (आईओडब्ल्यू) की गलती से कोई पुल या पुलिया का गलत निर्माण हो जाता है और बाद में उसे विभागीय खर्च पर फिर से निर्मित किया जाता है, उसी तरह की सहानुभूति एसई-एसएसई/ट्रेक (पीडब्ल्यूआई) के साथ भी होनी चाहिए, क्योंकि पीडब्ल्यूआई की नौकरी वैसे ही अपने आप में एक बड़ा दंड होती है. यह कहना है तमाम कर्मचारियों का, मगर इससे सम्बंधित सवालों का जवाब देने के लिए यहाँ कोई अधिकारी तैयार नहीं है. एक बड़े अधिकारी ने यह कहकर बात को टाल दिया कि आप यहाँ होते तो हम आपको समझाते कि वास्तव में क्या और कैसे होता है, अब इसे उनकी धमकी माना जाए या सामान्य तौर पर कही गई सामान्य बात..? तथापि 'रेलवे समाचार' ने उन्हें सीतामढ़ी - बरगेनिया एवं सीतामढ़ी - रुन्नी सैदपुर 16 फ़रवरी को और बरौनी - लखमिनिया लाइन 21-22 फ़रवरी को, रो-गाकर ही सही, करीब एक साल से भी ज्यादा समय बाद ओपन लाइन को सौंप दिए जाने की बधाई दी. 
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