Saturday 20 August, 2011


'गंदगी' पर 'गंदगी' फ़ैलाने पर 

उतारू कुछ रेलवे बोर्ड अधिकारी 

वैक्यूम टॉयलेट के टेंडर में जर्मन कंपनी का फेवर करने का प्रयास 

नई दिल्ली : जर्मन कंपनी द्वारा निर्मित जिन एलएचबी कोचों की कपलिंग को भारतीय रेल के जो यांत्रिक इंजीनियर आजतक ठीक नहीं कर पाए हैं और जिनसे लाखों यात्रियों को रोज झटके लग रहे हैं, वही यांत्रिक इंजीनियर अब एक जर्मन कंपनी के वैक्यूम टॉयलेट मंगाकर भारतीय रेल में और ज्यादा गंदगी फ़ैलाने की कोशिश कर रहे हैं. पता चला है कि वैक्यूम टॉयलेट के टेंडर में एक जर्मन कंपनी को रेलवे बोर्ड के कुछ अधिकारी फेवर करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमे एक बोर्ड मेम्बर की भूमिका प्रमुख बताई जा रही है. 

इस सन्दर्भ में प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रायोगिक तौर पर फ़िलहाल 80 वैक्यूम टॉयलेट का एक ग्लोबल टेंडर (No. 2011/Development cell/ICCI/2) रेलवे बोर्ड द्वारा जारी किया गया है, जो कि 12 अगस्त को खुलना था. मगर इसके खुलने की तारीख अब आगे बढाकर 28 सितम्बर कर दी गई है. बताते हैं कि यह टेंडर कुल 2.40 करोड़ का है, जिसके अनुसार प्रति वैक्यूम टॉयलेट की करीब कीमत 3 लाख रूपये आती है. 

रेलवे बोर्ड के हमारे विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार यह टेंडर और इसकी शर्तें खासतौर पर उक्त जर्मन कंपनी को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं. जैसे 1000 से ज्यादा वैक्यूम टॉयलेट बनाने, लगाने और रखरखाव करने का अनुभव रखने वाली कंपनी ही इस टेंडर में शामिल हो सकती है. सूत्रों का कहना है कि सिर्फ उक्त जर्मन कंपनी ने ही 1200 ऐसे वैक्यूम टॉयलेट बनाने, लगाने और रखरखाव करने का दावा पेश किया है, बाकी दुनिया भर में ऐसी कोई अन्य कंपनी नहीं है जो यह काम कर रही हो. मगर हमारे सूत्रों का कहना है कि उक्त जर्मन कंपनी ने वास्तव में ही 1200 वैक्यूम टॉयलेट बनाए-लगाए हैं, इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, और न ही इनकी 'गिनती' करने के लिए बोर्ड का कोई यांत्रिक अधिकारी जर्मनी गया था. तथापि सूत्रों का कहना है कि एक खास बोर्ड मेम्बर द्वारा इस जर्मन कंपनी का भरपूर फेवर किया जा रहा है, क्योंकि बताते हैं कि इस जर्मन कंपनी ने उक्त बोर्ड मेम्बर को एडवांस में न सिर्फ करोड़ों रूपये दिए हैं बल्कि रिटायर्मेंट के बाद भी कंपनी की सेवाएँ उसे ऑफ़र कर रखी हैं? 

हमारे सूत्रों का कहना है कि उक्त जर्मन कंपनी वैक्यूम टॉयलेट्स की सिर्फ कम्पूटर आधारित ड्राइंग-डिजाइन तैयार करती है मगर वह इन्हें खुद निर्माण (मैन्युफैक्चर) नहीं करती है. बल्कि बाहर से बनवाकर इनकी सप्लाई करती है. जो कि एक ट्रेडिंग है और यह काम कोई भी व्यक्ति कर सकता है. सूत्रों का कहना है कि इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि उक्त जर्मन कंपनी ने 1200 वैक्यूम टॉयलेट्स लगाए ही हैं? इसके अलावा जब सिर्फ एक रेक में ही 80 टॉयलेट्स की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का टेंडर निकला जाना था, तो इसके लिए न्यूनतम 1000 टॉयलेट्स के निर्माण, स्थापना और रखरखाव के अनुभव की शर्त टेंडर में क्यों जोड़ी गई? हालाँकि सूत्रों का कहना है कि इस शर्त के चलते ही टेंडर को ज्यादा से ज्यादा प्रतिस्पर्धी होने सीमित किया गया है. इसी से यह जाहिर होता है कि इसमें एक कंपनी विशेष का फेवर किया जा रहा है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मामले में रेलवे बोर्ड ने 28 मार्च 2011 को एक प्री-बिड मीटिंग बुलाई थी. इस मीटिंग में इस प्रकार के टॉयलेट्स का निर्माण करने वाली अथवा निर्माण गतिविधियों से जुड़ी कई देशी-विदेशी कंपनियों और उनके प्रतिनिधियों ने भाग लिया था. बताते हैं कि तब भी बोर्ड को यह उम्मीद नहीं थी कि इस मीटिंग में इतनी ज्यादा कंपनियां आ जाएंगी. यही टेंडर में भी हुआ. सूत्रों का कहना है कि उक्त मीटिंग में कंपनियों ने इस बहुकरोड़ी प्रोजेक्ट पर रेलवे से धैर्य से काम करने और ज्यादा से ज्यादा कंपनियों को मौका देकर प्रतिस्पर्धापूर्ण काम लेने का सुझाव प्रमुखता से दिया था. बताते हैं कि उक्त मीटिंग में यह भी निर्णय लिया गया था कि कंपनियों द्वारा दिए गए सुझाओं पर आरडीएसओ द्वारा एक पुख्ता रिपोर्ट तैयार करवाकर रेलवे के अंतिम निष्कर्षों के आधार पर न सिर्फ टेंडर की सेवा-शर्तों को तय किया जाएगा बल्कि वह निष्कर्ष कंपनियों को भी भेजे जाएँगे. मगर ये आजतक नहीं भेजे गए हैं.

मगर हमारे विश्वसनीय सूत्रों का कहना है कि आरडीएसओ ने उक्त रिपोर्ट समय से तैयार कर ली थी मगर एक खास बोर्ड मेम्बर के इशारे पर यह रिपोर्ट आजतक बोर्ड को नहीं भेजी गई है. इसका कारण पूछे जाने पर सूत्रों का कहना है कि इस रिपोर्ट के न आने का बहाना बनाकर ही उक्त जर्मन कंपनी को प्रस्तावित टेंडर 12 अगस्त को आवंटित किया जाना था. परन्तु 'रेलवे समाचार' द्वारा इस सम्बन्ध में बोर्ड और आरडीएसओ में की जा रही पूछताछ के कारण 11 अगस्त की शाम को अचानक इसकी तारीख बढाकर 28 सितम्बर कर दी गई. हालाँकि आरडीएसओ और कई जोनल रेलों के तमाम अधिकारियों का मानना है कि भारत के लोग इस तरह के टॉयलेट्स के उपयोग के लिए न तो अभी तैयार हैं और न ही उन्हें इनके इस्तेमाल की कोई जानकारी ही है. उनका कहना था कि भारतीय रेल के कोचों में लगे पश्चिमी पद्धति के टॉयलेट्स की दुर्दशा को देखकर इन भावी वैक्यूम टॉयलेट्स की भावी स्थिति का अंदाज  अभी से लगाया जा सकता है. 

हमारे सूत्रों का कहना है कि यह भारतीय रेल का सबसे बड़ा घोटाला होने जा रहा है, क्योंकि इसका सारा खेल वैक्यूम टॉयलेट्स के सप्लाई कांट्रेक्ट में नहीं बल्कि ऐनुअल मेंटिनेंस कांट्रेक्ट (एएमसी) में होने वाला है. सूत्रों का कहना है कि उक्त जर्मन कंपनी की विशेष रूचि इसी एएमसी में है, जहाँ उसे करोड़ों का मुनाफा मुफ्त में मिलने वाला है. जबकि सूत्रों का कहना है कि कुछ अन्य विदेशी कंपनियों के साथ-साथ कई देशी कंपनियां भी इस क्षेत्र में उक्त जर्मन कंपनी कहीं बेहतर सेवा-सुविधा मुहैया कराने में सक्षम हैं, मगर वह 'सुविधा-शुल्क' देने में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन्हें जानबूझकर दरकिनार किया जा रहा है. प्राप्त जानकारी के अनुसार भारतीय रेल का यह टॉयलेट प्रोजेक्ट करीब 50 से 60 हज़ार करोड़ रूपये का है, जो कि कई चरणों में लागू होना है. यानि आने वाले समय में सर्वसामान्य भारतीय रेल यात्री भी 3-4 लाख रूपये की टॉयलेट शीट पर बैठकर मल त्याग करते हुए स्वयं को 'राजा और कलमाड़ी' के समकक्ष महसूस कर सकेगा? जहाँ जर्मन कंपनी द्वारा निर्मित एलएचबी कोचों की कपलिंग को आजतक दुरुस्त नहीं किया जा सका है, वहां अब एक और जर्मन कंपनी द्वारा निर्मित वैक्यूम टॉयलेट्स का क्या हाल होगा, यह तो उस पर बैठने के बाद लगने वाले झटकों से ही तय हो पाएगा..!! 

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