मुंबई : पिछले करीब २-३ सालों से प. रे. के मोटरमैनो की दादागीरी रेल प्रशासन का सिरदर्द बनी हुई है. पूरा रेल प्रशासन मोतार्मैनों की इस दादागीरी से आजिज आ गया है. मगर अबतक इस समस्या का कोई स्थाई समाधान न हो पाने का एकमात्र कारण स्वयं रेल प्रशासन में इच्छाशक्ति की कमी होना है. रेल प्रशासन की इसी किंकर्तव्यविमूढ़ता के कारण गुरुवार, 18 अगस्त को फिर एक बार प. रे. के मुट्ठी भर मोटरमैनो ने लाखों उपनगरीय रेल यात्रियों को ऐसे मौके पर भारी मुशीबत में डाल दिया जब 'बेस्ट' की बसों की भी हड़ताल चल रही थी. प.रे. प्रशासन अपने इन मुट्ठी भर मोटरमैनो के अलग कैडर को म.रे. की ही तरह रनिंग कैडर में मर्ज करने का निर्णय क्यों नहीं ले पा रहा है, यह समझ से परे है.. क्योंकि इस सम्बन्ध में रेलवे बोर्ड ने बहुत पहले ही अपनी हरी झंडी दिखा दी थी और प.रे. के दोनों मान्यताप्राप्त श्रम संगठन भी इसके लिए रेल प्रशासन का सहयोग करने की घोषणा कर चुके हैं. परन्तु फिर भी रेल प्रशासन ऐसा क्यों नहीं कर रहा है, इसका उसके पास कोई वाजिब जवाब भी नहीं है. गत वर्ष जब मोटरमैनो ने इसी तरह अचानक कई बार लोकल गाड़ियों को रोक कर रेल प्रशासन की नाक में दम कर दिया था, तब राज्य सरकार को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा था. तभी प.रे. के अलग मोटरमैन कैडर को रनिंग स्टाफ में मर्ज किए जाने का एक प्रस्ताव जीएम/प.रे. के समक्ष प्रस्तुत किया था. सबको इस बात का पूरा भरोसा था की जीएम इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दंगे मगर ३१ जनवरी २०११ को सेवानिवृत्त होने से पहले तत्कालीन जीएम/प.रे. श्री आर. एन. वर्मा ने ऐसा नहीं किया और इस फाइल को वे जैसी की तैसी ही छोड़कर चले गए. इसका परिणाम सामने है की हर छोटी-बड़ी और गैरमामूली बात पर मोटरमैनो की दादागीरी जारी है जिससे प.रे. के सभी अधिकारी और लाखों दैनिक उपनगरीय यात्री इन मुट्ठी भर अहंमन्य मोटरमैनो के बंधक बनकर रह गए हैं.
Thursday, 18 August 2011
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1 comment:
does nobody see Any reason for the motorman taking on all the responsibility of reaching the passengers safely, but the person sitting behind is being paid more just for ringing few bells with almost 0 responsibility
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